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खवगसेढोए विदियमूलगाहाए विदियभासगाहा
२३५ समुच्चयहो वा, हिदिबंधप्पाबहुआदीणमेत्थाणुत्ताणं समुच्चयफलत्तादो। संपहि एवं विहमेदिस्से गाहाए समुदायत्थं परवेमाणो विहासासुत्तमुत्तरं भणइ
* एसा गाहा अंतरदुसमयकदे हिदिबंधपमाण भणइ ।
$ १९९. गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि तस्सेव पयडिबंधविसेसावहारणटुं विदियभासगाहाए अवयारो(७९) भय-सोगमरदि-रदिगं हस्स-दुगुछा-णव॑सगित्थीओ ।
__ असादं णीचागोदं अजसं सारीरगं णामं ॥१३२॥
$२००. एसा बिदियभासणाहा पयडिवंधपरूवणावसरे अवज्झमाणपयडीणं बंधपडिसेहो भणइ, सव्वेसि परूवणाणं सपडिवक्खाणं चेव पिण्णयहेउत्तादो। तत्थ गाहापुन्वद्धण अट्ठण्हं णोकसायपयडीणमेत्थ बंधपडिसेहो णिद्दिडो । हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगुछाणमित्थि-णव सयवेदाणं च हेढा चेव अप्पप्पणो उद्देसे वोच्छिण्णबंधाणमेदम्मि विसये बंधाणुवलंभादो। मिच्छत्ताणताणुबंधिआदीणं पि पयडीणं एत्थ बंधो पत्थि, तेसि पि णिद्देसो किमट्ठ ण कीरदे १ ण, णिम्मूलीकयसंताणं तेसि बंधाभावस्साणुत्तसिद्धत्तादो। लिये आया है, क्योंकि प्रकृतमें उन शब्दोंके प्रयोजनका फल अनुक्त स्थितिबन्धसम्बन्धी अल्पबहुत्व आदिका समुच्चय करना है। अब इस प्रकार इस गाथाके समुदायरूप अर्थका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
ॐ यह भाष्यगाथा अन्तरकरण क्रिया किये जानेके दूसरे समयमें स्थितिबन्धके प्रमाणका कथन करती है।
६ १९९. यह सूत्र गतार्थ है । अब उसी जीवके प्रकृतिबन्धविशेषका अवधारण करनेके लिये दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं
(७९) भय, शोक, अरति, रति, हास्य, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, असातावेदनीय, नीचगोत्र, अयशःकीर्ति और शरीरनामकर्मसम्बन्धी प्रकृतियोंको नहीं बांधता है ॥१३२॥
६२००. यह दूसरी भाष्यगाथा प्रकृतिबन्धकी प्ररूपणाके अवसरपर नहीं बँधनेवाली प्रकृतियों के बन्धके निषेधका कथन करती है, क्योंकि सभी प्ररूपणाओंका हेतु सप्रतिपक्षका निर्णय कराना है। वहां गाथाके पूर्वार्ध द्वारा आठ नोकषायप्रकृतियोंका यहाँ बन्ध होनेका निषेध जानना चाहिये, क्योंकि हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इनकी पहले ही अपनेअपने स्थानमें बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे यहाँपर उनके बन्धका निषेध किया है। मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियोंका भी यहाँपर बन्ध नहीं होता।
शंका-यदि ऐसा हैं तो उनका भी निर्देश क्यों नहीं किया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उनका सत्त्व निर्मूल कर दिया गया है, इसलिये प्रकृतमें उनके बन्धका अभाव अनुक्तसिद्ध है।