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________________ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए तदियभासगाहा २३७ $ २०३. संषहि अण्णाओ वि जाओ अबज्झमाणपयडीओ एत्थ संगहियाओ तासिं णिद्द सकरणट्ठमबज्झमाणाणु मागविसेस परूवणङ्कं च तदियभासगाहाए अवयारो (८०) सव्वावरणीयाणं जेसिं आंवट्टणा दु णिद्दाए । I पयलायुगस्स य तहा अबंधगो बंधगो सेसे ॥१३३॥ $ २०४. एत्थ ताव गाहापच्छद्धमवलंबिय अवज्झमाणसे सपयडीणमणुगमं कस्साम । णिद्दा- पयलाणमाउगस्स च सव्वस्स णियमा अबंधगो, तेसिमेदम्मि विसये बंधासंमवादो । 'बंधगो सेसे' एवं भणिदे पुव्विल्लगाहासुत्ते एत्थ य जाओ अबज्झमाडीओ णिद्दिट्ठाओ ताओ मोत्तूण सेसाओ पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीयसादावेदणीय चदुसंजलण- पुरिसवेद - जसगित्ति उच्चागोद-पंचं तराइयपयडीओ एसो बंदि ति सुतत्थ संगहो । $ २०५. संपहि गाहापुव्वद्धमस्सिगूण अबज्झमाणाणुभागवि सेसाणुगमं कस्सामो, तत्तो चैव बज्झमाणाणुभागविसयणिण्णयसिद्धीदो । तं जहा - एत्थे ताव एवं पदसंबंधो भूत सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यशःकीर्तिका तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदका अपने-अपने योग्य स्थान तक नियमसे बन्ध होता रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि चार संज्वलन और पुरुषवेदका आगे भी अपने-अपने योग्य स्थान तक बन्ध होता रहता है यह कैसे समझा जाय ? समाधान यह है कि भाष्यगाथाके पूर्वार्ध में मोहनीय कर्म की जिन प्रकृतियों को गिनाया है उनमें इन पाँच प्रकृतियोंको सम्मिलित नहीं किया है। इससे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँसे लेकर आगे भी इन प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है । $ २०३. अब अन्य भी अबध्यमान जिन प्रकृतियोंका यहाँ संग्रह किया गया है उनका निर्देश करनेके लिए तथा अबध्यमान अनुभागविशेषके कथन के लिये तीसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं(८०) जिन कर्मों की अपवर्तना होती है उनके सर्वावरणीय स्पर्धकोंका तथा निद्रा, प्रचला और आयुकर्मका अबन्धक होता है । तथा इनके सिवाय शेष कर्मोंका बन्धक होता है ।। १३३॥ $ २०४. यहाँ सर्वप्रथम गाथाके उत्तरार्धका अवलम्बन करके अबध्यमान शेष प्रकृतियोंका अनुगम करेंगे । निद्रा, प्रचला और सब आयुओंका नियमसे अबन्धक होता है, क्योंकि उनका इस स्थानमें बन्ध सम्भव नहीं है । 'बंधगो सेसे' ऐसा कहनेपर पूर्वके गाथासूत्र में यहाँपर जिन अबध्यमान प्रकृतियों का निर्देश किया है उनको छोड़कर शेष पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन प्रकृतियोंको यह जीव बाँधता है यह इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । $ २०५. अब गाथाके पूर्वार्धका अवलम्बन लेकर अबध्यमान अनुभागविशेषका अनुगम करेंगे, क्योंकि उसीसे बध्यमान अनुभागके विषयके निर्णयकी सिद्धि होती है । वह जैसे - वहाँ १. ता० प्रतौ तत्थ इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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