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________________ २०१ खवगसेढोए अणियट्टिकरणे कज्जविसेसपरूवणा * तदो अट्ठकसाया टिदिखंडयपुत्तेण संकामिजंति । ११६. सुगमं । * अट्टण्हं कसायाणमपच्छिमहिदिखंडए उक्किण्णे तेसिं संतकम्ममावलियपविठं सेसं।। ११७. अट्ठकसायाणमपच्छिमद्विदिखंडए चरिमफालिसरूवेण पिल्लेविदे तेसिमावलियपविट्ठसंतकम्मस्सेव समयणावलियमेतणिसेगपमाणस्स परिसेसत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । समयूणावलियमेतद्विदीओ वि चरिमफालीए सह किण्णावणिज्जंते ण, आवलियपविट्ठस्स कम्मरस खंडयघादासंमवादो। * तदो हिदिखंडयपुत्तेण णिहाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं णिरयगदि-तिरक्खगदिपाओग्गणामाणं संतकम्मस्स संकामगो। .5 ११८. अट्ठकसाये खविय पुणो द्विदिखंडयपुधत्तवावारेण अंतोमुहुत्तकालं वोलाविय तदो एदेसि सोलसण्हं कम्माणं संकामणमाढवेदि ति मणिदं होदि । एत्थ 'णिरय-तिरिक्खगइपाओग्गणामाओ' ति वुत्ते णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीतिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुन्वी-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि * तत्पश्चात् स्थितिकाण्डकपृथक्त्वके द्वारा आठ कषायोंको संक्रान्त करता है। ६ ११६. यह सूत्र सुगम है।। * आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण होनेपर उनका सत्कर्म आवलिप्रविष्ट शेष रहता है । ६११७. आठ कषायोंसम्बन्धी अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम फालिरूपसे निर्लेपित होनेपर जिन कर्मों के एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेक अवशिष्ट रहे हैं ऐसे उन कर्मोंका आवलिप्रविष्ट सत्कर्म शेष रहता है इस प्रकार इसकी सिद्धि निर्बाधरूपसे पाई जाती है। शंका-एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियां भी अन्तिम फालिके साथ क्यों नहीं निर्जीर्ण होती हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि आवलिमें (उदयावलिमें) प्रविष्ट हुए कर्मका काण्डकघात होना असम्भव है। * तत्पश्चात् स्थितिकाण्डकपृथक्त्वके द्वारा निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि इन तीन सम्बन्धी तथा नरकगति और तिर्यञ्चगतिप्रायोग्य नामकर्मकी प्रकृतियोंसम्बन्धी सत्कर्मका क्षपक जीव संक्रामक होता है। ६ ११८. आठ कषायोंकी क्षपणा करके पुनः स्थितिकाण्डकपृथक्त्वके व्यापार द्वारा अन्तमुहूर्तकाल बिताकर तत्पश्चात् इन सोलह कर्मोंके संक्रमणका आरम्भ करता है यह उक्त सूत्र द्वारा कहा गया है। यहाँपर 'नरकगति और तिर्यश्चगतिप्रायोग्य नामकर्म' ऐसा कहनेपर नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति,
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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