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________________ M खवगसेढीए अणियट्टिकरणे आवासयाणि १८१ विरोहाभावादो। तं कधं ? दो जीवा समगमेव खवगसेढिमारूढा । तत्थ एक्को संखेज्जभागुत्तरहिदिसंतकम्मिओ, अण्णो संखेज्जमागहीणद्विदिसंतकम्मिओ। तत्थ जो संखेज्जभागुत्तरद्विदिसंतकम्मिओ तस्स विदिखंडयमियरस्स विदिखंडयादो अपुन्वकरणपढमट्ठिदिखंडयप्पहुडि संखेज्जमागुत्तरमेव होदूण पयट्टमाणमणियट्टिपढमसमये वि तेणेव पडिभागेगागेइज्जदि, अपुव्वकरणपादिदावसेससंखेज्जमागुत्तरहिदिसंतकम्मविसये पयट्टमाणस्स तस्स तहामावोववत्तीदो । जइ एवं, संखेज्जगुणट्ठिदिसंतकम्मियमस्सियूण संखेज्जगुणं पि अणियट्टिणो पढमढिदिखंड यमुक्कस्सयं किण्ण लन्भदे ? ण, तहासंभवादो । कुदो एवं चे ? अपुवकरणचरिमसमए घादिदावसेसस्स हिदिसंतकम्मस्स सव्वुक्कस्सस्स वि जहण्णादो एयद्विदिखंड यस्स संखेज्जदिभागमेत्तेणेवन्महियभावेणावट्ठाणणियमदंसणादो। तम्हा अणियट्टिपढमसमए जहण्णयादो द्विदिखंडयादों उक्कस्सयं द्विदिखंडयं संखेज्जभागुत्तरमेव, णाण्णारिसमिदि सिद्धं । एवं पढमाणुमागखंडयस्स वि विसरिसमावो समयाविरोहेणाणुगंतव्यो । पढमे हिदिखंडये हदे सव्वस्स तुल्लकाले अणियहिपविहस्स सत्कर्मविशेषका आश्रय कर उस तरहसे उनकी सिद्धि होनेमें विरोधका अभाव है। शंका-वह कैसे ? समाधान-दो जोव एक साथ ही क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए। उनमेंसे एक संख्यातवे भाग अधिक स्थितिसत्कर्मवाला है और दूसरा संख्यातवें भागहीन स्थितिसत्कर्मवाला है। उनमेंसे जो संख्यातवें भाग अधिक स्थितिसत्कर्मवाला है उसका स्थितिकाण्डक दूसरेके स्थितिकाण्डकसे अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकाण्डकसे लेकर संख्यातवां भाग अधिक होकर ही प्रवृत्त होता हुआ अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें भी उसी प्रतिभागके अनुसार ही चला आता है, अपूर्वकरणके द्वारा घात करनेके बाद अवशेष रहे संख्यातवें भाग अधिक स्थितिसत्कर्मके विषयमें प्रवृत्त हुआ वह उस तरहसे बन जाता है। __ शंका-यदि ऐसा है तो संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मवालेका आलम्बन लेकर अनिवृत्तिकरण जीवके प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा भी क्यों प्राप्त नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उस तरहसे प्राप्त होना असम्भव है। शंका-ऐसा किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें घात करनेके बाद अवशेष रहे सबसे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मके भी जघन्यकी अपेक्षा एक स्थितिकाण्डकके संख्यातवें भागमात्र ही अधिकरूपसे अवस्थानका नियम देखा जाता है, इसलिये अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें जघन्य स्थितिकाण्डकसे उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यातवाँ भाग अधिक ही होता है, अन्य रूपमें नहीं होता यह सिद्ध हुआ। इसी प्रकार प्रथम अनुभागकाण्डकका भी विसदृशपना समयके अविरोधपूर्वक जान लेना चाहिये। प्रथम स्थितिकाण्डकके घात हो जानेपर सभी अनिवृत्तिकरण जीवोंके समान १. आ०प्रतौ-भागेण घाइज्जदि इति पाठः । २. ता०प्रतौ-सेसं संखेज्ज इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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