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________________ १८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ___ * पढमसमयमणियधिस्स अण्णं द्विदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेअविभागों। * अण्णमणुभागखंडयं सेसस्स अणंता भागा। * अण्णो हिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण हीणो । ७४. एदाणि तिण्णि वि आवासयाणि द्विदि-अणुभागखंडय-ट्ठिदिबंधोसरणपबद्धाणि सुगमाणि । एत्थ डिदिखंडयावासये किंचि परूवेयव्वमत्थि ति तप्परूवणट्ठमुत्तरं पबंधमाह * पढमट्ठिदिखंडयं विसमं जहण्णयादो उकसयं संखेनभागुत्तरं । ७५. एतदुक्तं भवति-तिकालगोयराणं सव्वेसिमणियट्टिकरणाणं समाणसमये वट्टमाणाणं सरिसपरिणामत्तादो पढमट्ठिदिखंडयं पि तेसिं सरिसमेवेत्ति णावहारेयव्वं । किंतु तत्थ जहण्णुक्कस्सवियप्पसंभवादो केसि पि सरिसं, केसि चि विसरिसमिदि गहेयव्वं । जहण्णादो पुण उक्कस्सयं णियमा संखेज्जमागुत्तरमेवेत्ति । कुदो वुण सरिसपरिणामेसु अणियट्टिकरणेसु पढमट्ठिदिखंडयस्स विसरिसभावसंभवो त्ति णासंकणिज्जं; सरिसपरिणामेसु वि डिदिसंतकम्मविसेसमस्सियूण तहाभावसिद्धीए * प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण जीवके पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण अन्य स्थितिकाण्डक होता है। * शेष रहे अनुमागके अनन्त बहुभागप्रमाण अन्य अनुभागकाण्डक होता है। * पन्योपमके संख्यातवें भागहीन अन्य स्थितिबन्ध होता है। $ ७४. स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धापसरणसे सम्बन्ध रखनेवाले ये तीनों ही आवश्यक सुगम हैं । यहाँपर स्थितिकाण्डक आवश्यकके विषयमें किंचित् प्ररूपण करने योग्य है, इसलिये उसका कथन करनेके लिये आगेके प्रवन्धको कहते हैं * प्रथम स्थितिकाण्डक विषम होता है, जो जघन्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट संख्यातवे भागप्रमाण होता है। $ ७५. उक्त सूत्रका यह तात्पर्य है कि समान समयमें रहनेवाले त्रिकालगोचर समस्त अनिवृत्तिकरण जीवोंके सदृश परिणाम होनेके कारण उनके प्रथम स्थितिकाण्डक भी समान ही होता है ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिये । किन्तु वहाँ जघन्य स्थितिकाण्डक और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक ये विकल्प सम्भव हैं, क्योंकि किन्हींके सदृश होता है और किन्हींके विसदृश होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । जो स्थितिकाण्डक जघन्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट संख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है। शंका-सदृश परिणामवाले अनिवृत्तिकरण जीवोंमें प्रथम स्थितिकाण्डकके विसदृशपना कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सदृश परिणाम होनेपर भी स्थिति
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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