SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जवधवला सहिदे कसायपाहुडे द्विदितकम्मं तुणं । द्विदिखंडयं एि सव्वस्स अणियट्टिपविट्ठस्स विदियट्ठिदिखंडयादो विदियट्ठिदिखंडयं तुल्लं । तदो प्पहुडि तंदिमादो तदिमं तुल्लं । $ ७६. एतदुक्तं भवति -- पढमे ट्ठिदिखंडे णिल्लेविदे संते सव्वस्स तिकालगोयरस अणियट्टिस्स समाणे काले वट्टमाणस्स घादिदावसेसं ट्ठिदिसंतकम्मं समाणमेव होदि, समाणपरिणामेहिं घादिदूण परिसेसिदत्तादो । तदो विदियादिट्ठिदिखंडयाणं पि तव्विसयाणं समाणत्तमेव होइ, कारणे समाणे संते कज्जस्स वि तहामावं मोत्तूण पयारंतरासंभवादोति । एवमणुभागखंडयस्स वि एसा सरिसभावपरिक्खा कायव्वा, विदिया दिअणुभागखंडएसु णाणत्ताणुवलंभादो । एवं पढमट्ठिदिखंडयपरूवणावसरे चेव विदियादिडिदिखंडयाणं पि सरिसभावं परूविय संपहि तम्हि चेवाणियद्विपढमसमए दिबंध - ट्ठदिसंतकम्माणं पमाणावहारणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह * ट्ठिदिबंधो सागरोवमसहस्सपुधत्तमंतो सदसहस्स । $ ७७, पुव्वं अंतोकोडाकोडिपमाणो होतो द्विदिबंधो अपुव्वकरणद्वाए संखेज्जसहस्समेत्तेहिं द्विदिबंधोसरणेहिं सुट्टु ओहट्टियूण अणियट्टिकरणपढमसमए सागरोवमसमयमें समान स्थितिसत्कर्म होता है तथा स्थितिकाण्डक भी समान होता है । अतः अभी अनिवृत्तिकरण जीवोंके दूसरे स्थितिकाण्ड कसे दूसरा स्थितिकाण्डक समान होता है तथा वहाँ लेकर उतनेवेंसे स्थितिकाण्डकसे उतनेवां स्थितिकाण्डक समान होता है । I १८२ $ ७६. इस सूत्र का यह तात्पर्य है कि प्रथम स्थितिकाण्डकके निर्लेपित हो जानेपर समान कालमें विद्यमान त्रिकालगोचर सभी अनिवृत्तिकरण जीवोंके घात करनेके बाद अवशिष्ट रहा स्थितिसत्कर्म समान ही होता है, क्योंकि वह समान परिणामोंके द्वारा घात करनेके बाद अवशिष्ट रहा है । इसलिए अनिवृत्तिकरणके समान परिणामों और समान स्थितिसत्कर्मके अनुसार द्वितीयादि स्थितिकाण्डक भी समान होते हैं, क्योंकि कारणोंके समान होनेपर कार्यका भी उक्त प्रकारको छोड़कर अन्य प्रकारसे होना असम्भव है । इसी प्रकार अनुभागकाण्डककी भी यह सदृशरूपसे होनेकी परीक्षा कर लेनी चाहिये, क्योंकि द्वितीयादि अनुभाग काण्डकों में विसदृशता नहीं उपलब्ध होती । इस प्रकार प्रथम स्थितिकाण्डकको प्ररूपणाके समय ही द्वितीयादि स्थितिकाण्डकों के सदृशपनेका कथन करके अब उसी अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म प्रमाणका निश्चय करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैंहैं * स्थितिबन्ध एक लक्ष सागरोपमके भीतर सागरोपम सहस्रपृथक्त्वप्रमाण होता है 1 $ ७७. पहले स्थितिबन्ध अन्त: कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण था, जो अपूर्वकरण कालमें संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणोंके द्वारा बहुत अधिक घटकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें १. ता०प्रतौ तदियादो तदियं इति पाठः । २. ता० प्रती पमाणे इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy