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________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ५१. तं जहा-एगो पुव्वं दंसणमोहणीयं खविय पच्छा उवसमसेढिं समारूढो। अण्णो दंसणमोहणीयमक्खविय उवसमसेटिं च ट्टिदो दोण्हमेदेसि उवसमसेढिं चढिय ओदिण्णाणं मज्झे जो अक्खीणदंसणमोहणिज्जो मो पच्छा दंसणमोहणीयं खपिय चरित्तमोहक्खवणाए अन्भुडिय अपुव्वकरणपढमसमयम्मि द्विदो । इयरो वि समयाविरोरोहेणागंतूण तत्थेवावट्ठिदो । तत्थ जेण पच्छा दंसणमोहणीयं खविदं तस्स द्विदिसंतकम्ममियरस्स द्विदिसंतकम्मादो संखेज्जगुणहीणं होइ । कारणमेत्थ सुगमं । अधवा एक्को दंसगमोहणीयं खविय पुणो उबसमसेढिं चढिय तत्तो ओदरिय चरित्तमोहक्खणाए अब्भुद्विदो । अण्णेगो दंसणमोहणीयं खत्रिय उवसमसेढिमचढिये खवणाए अब्भुट्ठिदो। एवमभुट्ठिदाणं जो उवसमसेढिं चढिदागदो तम्स ट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणही होइ । इयरस्स वि द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं होदि, उवसमसेढीए अपत्तघादत्तादो। एवं होदि त्ति कादूर्ण जस्स संखेज्जगुणहीणं डिदिसंतकम्मं तस्स पढमद्विदिखंडयादो संखेज्जगुणढिदिसंतकम्मियस्स पढमं द्विदिखंडयं संखेज्जगुणं होदि; द्विदिसंतकम्माणुसारेणेव द्विदिखंडयाणं पि पवुत्तीए बाहाणुवलंभादो। एवं विदियादिद्विखंडयाणं पि वुत्ती एदेणेव कमेणाणुगंतव्वा जाव दोण्हं पि अपुव्वकरणचरिमद्विदिखंडयं ति । तम्हा अपुवकरणपढमद्विदिखंडयं जहण्णमुक्कसयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । ५१. वह जैसे-एक जीव पहले दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके पीछे उपशमश्रेणिपर आरूढ़ हुआ । अन्य जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा किये बिना उपशमणिपर चढ़ा। उपशमश्रेणिपर चढ़कर उतरे हुए इन दोनों जीवोंके मध्यमें जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं करनेवाला जीव है वह बादमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हो अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थित है तथा दूसरा भी आगमके अविरोधपूर्वक आकर वहीं स्थित है। वहाँ जिसने पीछे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा की स्थितिसत्कर्मवाले उसके स्थितिसत्कर्मसे दूसरेका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन होता है। यहाँपर कारणका कथन सुगम है। अथवा एक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके पुनः उपशमश्रेणिपर चढ़कर और वहाँसे उतरकर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। तथा अन्य एक जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके और उपशमश्रोणिपर न चढ़कर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ। इस प्रकार क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके लिये उद्यत हुए इन दोनों जीवोंमेंसे जो उपशमश्रेणिपर चढ़कर आया है उसका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन होता है तथा दूसरेका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होता है। ऐसा समझकर जिसका संख्यातगुणा हीन सत्कर्म होता है उसके प्रथम स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मवालेका प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा होता है, क्योंकि स्थितिसत्कर्मके अनुसार ही स्थितिकाण्डकोंकी प्रवृत्ति भी बिना बाधाके उपलब्ध होती है। इस प्रकार दोनोंके ही अपूर्वकरणके अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होनेतक द्वितीयादि स्थितिकाण्डकोंकी प्रवृत्ति भी इसी क्रमसे जाननी चाहिये। इस प्रकार अपूर्वकरणके जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होते १. ता०प्रती [ उवसम (खवग) ] सेडिं चडिय इति पाठः । २. -गुणं हीणं इति पाठः । ३. ता०प्रतौ त्ति घादं कादूण इति पाठः
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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