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________________ खवगसेढीए अपुव्वकरणे कज्जविसेसो १७१ सेसहिदिसंतकम्मस्स सव्वुक्कस्सस्स वि सागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिखंडयुप्पत्तीए णिमित्तभूदस्स अणुवलंभादो त्ति । ५०. संपहि एत्थ जहण्णयं द्विदिखंडयं कस्स होइ, उक्कस्सयं वा कस्स होदि त्ति एवंविहाए पुच्छाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरं सुत्तपबंधमाह * दो कसायक्खवगा अपुवकरणं समगं पविट्ठा । एकस्स पुण हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं, एक्कस्स हिदिसंतकम्म संखेज्जगुणहीणं । जस्स संखेनगुणहीणं ठिदिसंतकम्मं तस्स हिदिखंडयादो पढमादो संखेनगुणहिदिसंतकम्मियस्स ठिदिखंडयं पढमं संखेनगुणं, विदियादो विदियं संखेजगुणं । एवं तदियादो तदियं । एदेण कमेण सव्वम्हि अपुवकरणे जाव चरिमादो ठिदिखंडयादो त्ति तदिमादो तदिम संखेनगुणं ।। है उस कषायको क्षपणा करनेवाले जीवके सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिकाण्डककी उत्पत्तिमें निमित्तभूत सबसे उत्कृष्ट स्थितिकाण्डककी अनुपलब्धि है। विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि इस जीवके जब-जब अपूर्वकरण परिणाम होते हैं तब-तब स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नियमसे होते हैं। ऐसे स्थान सात हैं-दर्शनमोहनीय की उपशामना, दर्शनमोहनीयकी क्षपणा, चारित्रमोहनीयकी उपशामना, संयमासंयमकी प्राप्ति, संयमको प्राप्ति, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और कषायोंकी क्षपणा। इनमेंसे जो प्रारम्भके छह स्थान हैं उनमें प्रथम जघन्य स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका प्रमाण सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण होता है। यहाँ एक बात यह जाननी चाहिये कि जिन वेदकसम्यग्दृष्टियोंके संयमासंयम और संयमकी प्राप्ति होनेके बाद जबतक एकान्तानुवृद्धिरूप उक्त परिणाम बने रहते हैं तबतक भी स्थितिकाण्डकधात और अनुभागकाण्डकघात होते रहते हैं। संयमासंयम और संयमके विषयमें शेष कथन आगमके अनुसार जानना चाहिये। ६५०. अब यहाँपर जघन्य स्थितिकाण्डक किसके होता है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक किसके होता है इस प्रकार ऐसी पृच्छाके होनेपर निःशंक करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * कषायोंकी क्षपणाके लिये समुद्यत हुए दो जीवोंने अपूर्वकरणमें एक साथ प्रवेश किया । परन्तु उनमेंसे एकका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है और एकका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है। जिसका संख्यातगुणा हीन स्थितिसत्कर्म है उसके प्रथम स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मवालेका प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा होता है, दूसरेसे दूसरा संख्यातगुणा होता है तथा तीसरेसे तीसरा संख्यातगुणा होता है इस प्रकार उतनेवेसे उतनेवाँ संख्यातगुणा होता है इस क्रमसे अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होनेतक पूरे अपूर्वकरणमें जानना चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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