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________________ धवलासहिदे कसायपाहुडे संखेज्जदिभागो' सि कुत्ते जहा जहण्णयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागषमाणमेवमुक्कस्यं पि दव्वं; ण तत्थ पयारंतरसंभवो सि बुतं होदि । संपहि एदस्सेवत्थस्स निण्णयकरणमुत्तरसुत मोहणं । १७० * जहा दंसणमोहणीयस्स उवसामणाए च दंसणमोहणीयस्स खवणाए च कसायाणमुवसामणाए च एदेसिं तिण्हमावासयाणं जाणि अपुष्वकरणाणि तेसु अपुष्वकरणेसु पढमद्विदिखंडयं जहण्णयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सयं सागरोवमपुधत्तं । एत्थ पुण कसायाणं खवणाए जं अपुव्वकरणं तम्हि अपुव्वकरणे पढमट्ठिदिखंडयं जहण्णयं पि उक्कस्यं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । $ ४९. एतदुक्तं भवति — जहा एदेसु तिसु किरिया भेदेसु किरियंतरेसु च संजमासंजम-संजमग्गहण-अनंताणुबंधिविसंजोयणभेय भिण्णेसु पयट्टमाणो अपुव्वकरणो पढमट्ठिदिखंड यं जहणेण पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपमाणं; उक्कस्सेण सागरोबमधत्तपमाणमाढवे, ण तहा एत्थ संभवो; किंतु एत्थ कसायक्खवणाए अपुव्वकरणस्स पढमट्ठिदिखंडयं जहण्णमुक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागपमाणं चैव होदूण जहणादो उक्कस्यं संखेज्जगुणं होदि ति गहेयव्वं; दंसणमोहक्खवगेण घादिदाव उक्कस्यं पिपलिदोवमस्स संखज्जदिभागो' ऐसा कहनेपर जिस प्रकार जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक भी जानना चाहिये । वहाँ प्रकारान्तर सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्तर्य है । अब इसी अर्थका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्र आया है— * जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी उपशामनामें, दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें और कषायोंकी उपशामनामें इन तीन आवश्यकोंके जो अपूर्वकरण हैं उन अपूर्वकरणों में जघन्य प्रथम स्थितिकाण्डक पन्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण है । परन्तु यहांपर कषायोंकी क्षपणामें जो अपूर्वकरण है उस अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकाण्डक जघन्य भी और उत्कृष्ट भी पन्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है । $ ४९. इस सूत्र में यह कहा गया है कि जिस प्रकार इन तीन क्रियाभेदोंमें तथा संयमासंयमग्रहण, संयमग्रहण और अनन्तानुबन्धीको विसंयोजनाको अपेक्षा भेदको प्राप्त दूसरी क्रियाओं में प्रवृत्त होता हुआ अपूर्वकरण जीव जघन्यरूपसे पल्यो के संख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्टरूपसे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण प्रथम स्थितिकाण्डकको करता है, उस प्रकार यहाँ सम्भव नहीं है । किन्तु यहाँ कषायकी क्षपणा जघन्य भी और उत्कृष्ट भी स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होकर भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि दर्शन मोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके द्वारा घाते जानेके बाद जिसके स्थितिसत्कर्म अवशेष रहता
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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