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________________ १६२ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६३३. सुगमं । णवरि एत्थ पवेसगो त्ति वुत्ते उदीरणासरूवेणुदयावलियं पवेसोमाणो घेत्तव्वो; उदीरणोदएण पयदत्तादो। ___* आउग-वेदणीयवजाणं वेविजमाणाणं कम्माणं पवेसगो । ३४ एत्थ ताव वेदिज्जमाणाणं कम्माणं णिद्देसो कीरदे । तं जहा-पंचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणावरणीयाणं णियमा वेदगो। णिहा-पयलाणं सिया, तासिमवत्तोदयस्स कदाई संभवे विरोहाभावादो। सादासादाणमण्णदरस्स, चदुण्हं संजलणाणं तिण्हं वेदाणं दोण्हं जुगलाणमण्णदरस्स णियमा, भयदुगुंछाणं सिया, मणसाउ-मणसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-छण्णमण्णदरसंठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुआदि-चउक्क-दोण्हमण्णदरविहायगदि-तसचउक्क-थिराथिर-सुमासुभ सुभग सुस्सरे-दुस्सराणमेक्कदर-आदेज्जजसगित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणमेसो वेदगो । एत्तो अण्णेसिमेत्युदयासंभवादो। एदेसु सादासादवेदणीय-मणुसाउआणि मोत्तूण सेसाणमुदीरगो होदि । किमट्ठमाउअवेदणीयाणमेत्थ उदीरणा ण संभवइ १ ण, वेदणीयाउआणमुदीरणाए पमत्तसंजदगुणट्ठाणादो उवरि संभवाभावादो । $३३. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि प्रकृतमें 'पवेसगो' ऐसा कहनेपर उदीरणारूपसे उदयावलिमें प्रवेश करानेवालेको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँपर उदीरणारूप उदय प्रकृत है। * आयुकर्म और वेदनीयकर्मके सिवाय वेदे जानेवाले कर्मोंका प्रवेशक होता है । ६ ३४. यहाँपर सर्वप्रथम वेदे जानेवाले कर्मोंका निर्देश करते हैं। वह जैसे-पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय कर्मोका नियमसे वेदक होता है । निद्रा और प्रचलाका कदाचित् वेदक होता है, क्योंकि उनका अव्यक्त उदय कदाचित् सम्भव है इसमें कोई विरोध नहीं है। साता और असातामेंसे किसी एकका, चार संज्वलनों, तीन वेदोंमेंसे किसी एकका और दो युगलों से किसी एक युगलका नियममें वेदक होता है। भय और जुगुप्साका कदाचित् वेदक होता है। मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिक पांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार, दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर-दुस्वर इनमेंसे कोई एक, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इनका यह वेदक होता है, इनके सिवाय अन्य प्रकृतियोंका यहाँ उदय असम्भव है। इनमेंसे सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायुको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका उदीरक होता है। शंका-यहाँपर आयुकर्म और वेदनीयकर्मकी उदोरणा किसलिये सम्भव नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि वेदनीय और आयुकर्मको उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे ऊपर सम्भव नहीं है। १. ता०प्रती सुभगदूभग सुस्सर- इति पाठः। २. ता०प्रती सादावेदणीय इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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