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________________ १२ प्रस्तावना है।मात्र प्रथम समयकी अपेक्षा गुणश्रेणिनिक्षेप असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजरूप होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जानेपर क्रमसे असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके समान मोहनीयका स्थितिबन्ध होने लगता है। इसी अनुपातसे शेष कर्मोंके स्थितिबन्धको समझ लेना चाहिये। आगे भी यथासम्भव किस विधिसे स्थितिबन्ध और स्थिति सत्कर्म उत्तरोत्तर कम कम होता जाता है उसका निर्देश मूलमें किया ही है। अन्तमें जब मोहनीयकर्मका स्थितिसत्कर्म सबसे थोड़ा, उससे तीन घाति कर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यातगुणा उससे नाम-गोत्रका स्थितिसत्कर्म असंख्यातगुणा तथा उससे वेदनीयका स्थिति सत्कर्म विशेष अधिक प्राप्त होता है, तब वेदे जानेवाले आयुकर्मके सिवाय शेष सव कर्मोके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा प्रारम्भ हो जाती है। तदनन्तर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घात होनेपर मध्यको आठ कषायोंकी क्षपणाका प्रस्थापक होकर स्थिति काण्डकपृथक्त्वके घात होने में जितना समय लगे उतने समय द्वारा इन आठ कषायोंका निर्मूल क्षय करता है। इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन होनेपर उसके उदयावलिके भीतर एक निषेक कम एक आवलिप्रमाण जो निषेक शेष रह जाते हैं वे स्तिवुक संक्रम द्वारा सजातीय उदय प्रकृतिरूप होकर निर्जीर्ण हो जाते हैं। तदनन्तर स्थितिकाण्डक पृथक्त्वप्रमाण कालके द्वारा निद्रानिद्रा, प्रचलानप्रचला और स्त्यानगृद्धिके साथ नरकगति और तिर्यञ्चगतिप्रायोग्य नामकर्मकी प्रकृतियोंका पूर्वोक्त विधिसे क्षय करता है। नरकगतिद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण ये नामकर्मकी १३ प्रकृतियाँ हैं। ___ तदनन्नर स्थितिकाण्डकपृथक्त्वप्रमाण कालके द्वारा क्रमसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायका, पश्चात् उतने ही कालके द्वारा अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायका, पश्चात् उतने हो कालके द्वारा श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायका, पश्चात् उतने ही कालके द्वारा चक्षुदर्शनावरणका, पश्चात् उतने ही कालके द्वारा आभिनिबोधिक शानावरण और परिभोगान्तरायका, पश्चात् उतने ही कालके द्वारा वोर्यान्तरायका देशघातीकरण करता है। तदनन्तर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकप्रमाण काल जानेपर अन्य स्थितिकाण्डक, अन्य अनुभागकाण्डक और अन्य स्थितिबन्धके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे एक स्थितिकाण्डकके घातमें जितना समय लगता है उतने कालके द्वारा चार संज्वलन कषाय और नो नोकषायवेदनीय-इन १३.प्रकृतियोंका अन्तरकरण विधिके द्वारा अन्तर करता है। यतः यह जीव पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ क्षपश्रेणीपर चढ़ा है अतः इन दोनों कर्मोकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छोड़कर तथा अनुदयरूप शेष ११ कर्मोकी प्रथम स्थिति एक आवलिप्रमाण छोड़कर अन्तर करता है । यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि (१) अन्तरके लिये जिन प्रकृतियोंको उत्कीरित किया जाता है उनका अन्तर करने में जितना समय लगता है उतनी फालियां बनाकर उनके प्रदेशेपुंजको उत्कीरितकी जानेवाली स्थितियोंमें नियमसे नहीं देता है। (२) वेदी जानेवाली जिन प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति है उनकी उस प्रथम स्थितिके ऊपरकी अपनी और अन्य प्रकृतियोंकी अन्तरको प्राप्त होनेवालो स्थितियोंके उत्कीरित किये जानेवाले प्रवेशपुंजको अपकर्षणके द्वारा तथा यथासम्मव समस्थिति संक्रमके द्वारा संक्रान्त करता है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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