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________________ जयधवला परन्तु स्थितिकाण्डकाघात फालिक्रमसे होता है । अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्तकालके जितने समय होते हैं उतने समयप्रमाण प्रत्येक काण्डककी फालियां होतीं हैं । यहाँ फालिका अर्थ हैजैसे लकड़ी के एक कुन्देके चीरनेपर जो फालियाँ बनती हैं उसी प्रकार पल्योपमप्रमाण स्थितिnature अन्तर्मुहूर्त प्रमाण फालियाँ करके उनमेंसे एक-एक समय में एक-एक फालिका अपकर्षण करके यथाविधि अतिस्थापनावलिसे नोचेकी स्थितिमें निक्षेप करते हुए अन्तिम समय में शेषका काण्डकके नीचेकी स्थितिमें निक्षेप करनेपर एक अन्तर्मुहूर्तं कालके भीतर उतनी सत्त्वस्थिति घटकर दूसरे मुहूर्तके प्रथम समयमें पल्योपमका संख्यातवें भागप्रमाण कर्मस्थिति सत्त्व रह जाता है । (३) अनुभाग काण्डकघातका कम वही है जैसा स्थितिकाण्डकघातका सूचित किया है । इतनी विशेषता है कि एक स्थितिकाण्डकघातप्रमाण कालके भीतर हजारों अनुभागकाण्डकघात हो लेते हैं । यह अप्रशस्त कर्मोंका ही होता है । प्रशस्त क्रमका नहीं होता । अपूर्वकरणके प्रथम समय में जितना अनुभाग सत्कर्म होता है उसके अनन्त बहुभाग अनुभाग प्रमाण प्रथम अनुभागकाण्डक होता है । दूसरा अनुभागकाण्डक भी शेष रहे अनुभागका अनन्त बहुभागप्रमाण होता है । आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिये । (४) अपूर्वकरणके प्रथम समयसे असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका अपकर्षण करके उदयावलि बाह्य गुणश्रेणिकी रचना करता है। इसका आयाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक होता है । यहाँ विशेष अधिकसे सूक्ष्मसाम्परायके कालसे कुछ अधिक लेना चाहिये । १८ (५) अपूर्वकरणके प्रथस समय से जो अप्रशस्त कर्म बन्धको नहीं प्राप्त होते हैं उनका गुणसक्रम भी प्रारम्भ हो जाता है । प्रत्येक समयमें उत्तरोतर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्रदेशपुंजका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रम होना इसका नाम गुणमंक्रम है । परन्तु वह अबध्यमान अप्रशस्त कर्मोंका ही होता है । यह अपूर्वकरण के प्रथम समयकी प्ररूपणा है । दूसरे समय में प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशपुंजसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके गुणश्रेणि रचना करता है। शेष कथन पूर्व समय समान है। इस प्रकार इस विधि से अपूर्वकरणके संख्यातवें भागके व्यतीत होनेपर वहाँ निद्रा और प्रचलाकी बन्धुव्युच्छित्ति होकर उनका गुणसंक्रम प्रारम्भ हो जाता है। इसके बाद इस विधि से हजारों स्थितिबन्धापसरणोंके व्यतीत होनेपर वहाँ नामकर्मकी परभवसम्बन्धी देवगतिके साथ प्रवृतियों बन्धुव्युच्छिति होजाती है । तदनन्तर इस विधिसे अपूर्वकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होनेपर वहाँ हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी वन्धुव्युच्छित्ति और हास्यादि छहनोकषायोंकी उदयव्युच्छिति करके तदनन्तर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है। यहाँ नया स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डके प्रारम्भ हो जाता है। किन्तु त्रिकालगोचर अनिवृत्तिकरणोंके समान परिणाम रहनेपर भी किसीका प्रथम स्थितिकाण्डक विषम होता है और किसीका समान होता है । कारणका निर्देश मूलमें किया ही है। बाद में प्रथम स्थितिकाण्डकका पतन होनेपर सभी त्रिकाल गोचर अनिवृत्तिकरणोंका स्थिति सत्कर्म भी समान होता है और स्थितिकाण्डक भी समान होता है । अर्थात् एक जीवका जितना दूसरा स्थितिकाण्डक होता है, अन्य जीवोंका भी दूसरा स्थितिकाण्डक उतना ही होता है। आगे भी इसी विधिसे जान लेना चाहिये । अपूर्वकरणमें जिस गतिशेष गुण णिनिक्षेपका प्रारम्भ हुआ था, यहाँ भी वहीं चालू रहता है। यहां प्रथम समय में सभी कर्मोंके तीन करण व्युच्छिन्न हो जाते हैं। उनके नाम हैं अप्रशस्त उपशामनाकरण. निषत्तीकरण और निकाचनाकरण । दूसरे समयमें भी यहीं विधि चालू रहती
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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