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________________ १७ प्रस्तावना भाग-14 ही क्षपक श्रेणिपर आरोहरण करता है, इसलिये सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक दर्शन मोहनी की क्षपणा करके क्षणकश्रेणिपर आरोहण करनेवाला श्रमण प्रमत्त और अप्रमत्तस्थानोंमें साता-असाताके हजारों बन्ध परावर्तन करके क्षपकश्र णिके योग्य विशुद्ध होता हुआ इन तीन करणोंको क्रमसे करता है । इनमेंसे प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है । इनके लक्षण पूर्व में कह ही आये हैं । इनमें से पहले अधःप्रवृतकरणका प्रारम्भ करता है । उसके बाद उससे लगकर अपूर्वकरणका प्रारम्भ करता है और तदनन्तर अनिवृत्तिकरणको प्रारम्भ करता है । यहाँ अधःप्रवृत्तकरण में स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य तो नहीं होते । केवल (१) यह प्रथम समय से ही अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता जाता है । (२) स्थितिबन्धापसरणके द्वारा उत्तरोत्तर स्थितिबन्धमें हानि होती जाती है । (३) अप्रशस्त कर्मोके अनुभागबन्धको द्विस्थानीय करता है और (४) प्रशस्त कर्मोंके अनुभागबन्धको चतुःस्थानीय करता है । और ऐसा करते हुए यह अधःप्रवृत्तकरणके कालके अन्तिम समयको प्राप्त होना है । इसप्रकार जो जीव क्षपकश्रेणिपर आरोहणकर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये, उद्यत होता है उसका परिणाम विशुद्ध होता है । ज्ञायकस्वभाव आत्मामें उपयुक्त होने से वह परिणाम शुद्ध तो है ही किन्तु संज्वलन कषायका अव्यक्त उदय होनेसे उसमें अबुद्धिपूर्वक धर्मानुरागरूप किञ्चित् रागांश भी पाया जाता है, इसलिये वहाँ शुद्ध-शुभ परिणाम स्वीकार किया गया है । योगकी अपेक्षा वहाँ मनोयोग, वचनयोग और औदारिककायोगमें से कोई एक योग होता है । कषाय कोई भी होकर वह हीयमान होती है । वहाँ उपयोग कौन सा होता है इस विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं । एक उपदेशकी अपेक्षा वहाँ नियमसे श्रुतज्ञानसे उपयुक्त होता है। दूसरे उपदेशके अनुसार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इनमें से कोई एक उपयोग होता है । यहाँ श्रुतोपयोगके कारणरूपसे उसके शेष उपयोगोंका निर्देश किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । छह लेश्याओंमें से इसके नियमसे वर्धमान शुक्ललेश्या होती है । इसके द्रव्यवेद तो पुरुषवेद ही होता है । भाववेद अवश्य ही तीनों वेदोंमें कोई एक हो सकता है । यह इस जीव की पर्यायगत योग्यता है । कर्मबन्ध, उदय- उदीरणा और सत्त्व आदि इसके क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानकी भूमिकानुसार ही होता है जिसका विशेष विचार मूलमें किया ही है। इस क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समय से ये कार्य विशेष प्रारम्भ हो जाते हैं(१) स्थिनिकाण्डकघात | यह जघन्य भी होता है और उत्कृष्ट भी होता है । यद्यपि दोनोंका आयाम पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है । फिर भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा आयामवाला होता है । कारण कि जो जीव संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्त्वके साथ क्षपकश्र णिपर आरोहण करता है उसका उत्कृष्टकी अपेक्षा स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा हीन होता है और जो जीव जघन्यसे संख्यातगुणे अधिक स्थितिसत्त्वके साथ क्षपकणिपर चढ़ता है उसके जघन्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा अधिक आयामवाला होता है । यह प्रथम समयकी प्ररूपणा है। इसी प्रकार क्षपक अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । (२) स्थिनिबन्धापसरण। एक-एक स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण भी पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है । एक स्थितिकाण्डकघात के साथ एक स्थितिबन्धापसरणका काल अन्तर्मुहूर्त ता है। इसका अर्थ यह है कि एक अन्तर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं उतने काल तक समान स्थितिवन्ध होता रहता है । फिर अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त होकर दूसरा अन्तर्मुहूर्त प्रारम्भ होनेपर इस अन्तर्मुहूर्तमें पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति घटकर अन्य स्थितिका बन्ध होने लगता है । इस प्रकार अपूर्वकरणके अन्तिम समयतक जानना चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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