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जयधवला
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होने लगता है । जिसका काल अन्तर्मुहूर्त है । इसका अर्थ यह है कि गुणश्रेणिनिक्षेपमें से क्रमशः एक-एक निषौक प्रमाण द्रव्यके निर्जरित होनेपर ऊपर गुणश्रेणि शीर्ष में एक-एक समयप्रमाण निषेककी वृद्धि होती जानेसे यहाँसे इस गुणश्र णिनिक्षेपका काल बराबर अन्तमुहूर्त सदृश बना रहता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित आयामरूप गुणश्र णिनिक्षेप करके अनन्तर परिणामोंके अनुसार गुणश्र णिनिक्षेपमें वृद्धि, हानि और अवस्थानका क्रम चालू हो जाता है । आशय यह है कि स्वस्थान संयत होकर प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में रहते हुए यह जीव अवस्थित आयामरूप ही गुणश्रेणीनिक्षेप करता है । इसके बाद परिणामोंके अनुसार यह पुनः क्षपकश्रेणिपर या उपशमश्रेणिपर आरोहण कर सकता है । यहाँ अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में गुणसंक्रमकी व्युच्छित्ति हो जाती है । तथा जिन कर्मोंका बन्ध होता है उनका अधःप्रवृत्त संक्रम होने लगता है । मात्र नपुंसकवेद आदि अप्रशस्त कर्मोंका विध्यात संक्रम ही होता रहता है ।
उपशमणिसे गिरा हुआ यह जीव द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है । 'द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसे उपशमश्र णि पर चढ़ा और उतरा है उसके अधःप्रवृत्तकरणका यह काल, अपूर्वकरण से लेकर चढ़ने और उतरकर अपूर्वकरणअन्तिम समयको प्राप्त करने में जितना काल लगता है उससे, संख्यातगुणा होता है । पुनः इस उपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर यह असंयम या संयमासंयम या दोनोंको प्राप्त हो सकता है । उस कालमें एक समयसे लेकर अधिकसे अधिक छह आवलि कालके शेष रहने पर कदाचित् सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है ।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि इसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो जानेसे जब अनन्तानुबन्धीको सत्ता ही नहीं है तब यह सासादन गुणस्थानको कैसे प्राप्त होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति मात्र अनन्तानुबन्धी चणुष्क में से किसी एक प्रकृत्तिको उदीरणा होने पर ही होती है यह एक नियम है ? समाधान यह है कि परिणामोंके निमित्तसे जिसने अनन्तानुबन्धी की सत्ता प्राप्त करने के साथ उसकी उसी समय उदीरणा की है, ऐसे उस जीवके सासादन गुणस्थानके प्राप्त करनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
पुरुषवेद और क्रोधकषायके उध्यसे जो श्रेणिपर चढ़ा है उसकी मुख्यतासे यह विवेचन किया गया है। इसी प्रकार पुरुष वेदके साथ शेष तीनों कषायोंके उदयसे श्रेणिपर आरोहरण करने की अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिये । इसे समझने के लिए हमने मूल पृ० १०८ में एक नशा दे दिया है । साथही विशेषार्थ में इस विषयको स्पष्ट भी किया गया है उससे इस विषयको हृदयंगम करने में सहायता मिलेगी, इसलिये यहाँ इस विषयपर अलगसे प्रकाश नहीं डाला जारहा है । अब रहे शेष दो वेद तो स्त्रीवेदी पहले अवेदी होकर बादमें सात नोकषायोंको यथाविधि उपशमाता है । तथा जो नपुंसक वेदके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है वह नपुंसकवेद और स्त्रीवेद इन दोनोंका एक साथ उपशम करता है । इस प्रकार संक्षेपमें आरोहरण और अवतरण इन दोनों प्रकारसे उपशमश्र णिकी विवेचना करनेके बाद अन्तमें पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनके उदयसे उपशमश्र णिपर आरोहण करने और अवतरण करनेकी अपेक्षा चढ़ते समय अपूर्वकरण से लेकर उतरते समय अपूर्वकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होनेतक वहाँ जितने पद सम्भव हैं उन सबके कालकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करके चारित्रमोहउपशामना प्रकरणको समाप्त किया गया है ।
चारित्रमोहक्षपणा
चारित्रमोहकी क्षपणा में भी अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये ही तीन करण होते हैं । ये तीनों बिना अन्तरालके परस्पर लगे हुए ही होते हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव