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________________ प्रस्तावना १५ संक्रमण होता है । तथा तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारके लोभका लोभसंज्वलन में संक्रम होता है । तदनन्तर क्रमसे तीन प्रकारके मानका अपकर्षण करके मानसंज्वलनकी उदयादि गुण रचना करता है तथा अन्य दो प्रकारके मानकी उदयावलिवाह्य गुणश्रेणि रचना करता है । इस प्रकार यहाँसे नौ प्रकारके कषायका गुणश्रेणि निक्षेप होने लगता है । तदनन्तर तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण करके क्रोधसंज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणि रचना करता है । तथा अन्य दो प्रकारके क्रोधकी उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचना करता है । हाँसे बारह कषायों का गुणश्रेणि निक्षेप होने लगता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि संज्वलन लोभ आदि कषायोंका गुणश्रेणि निक्षेप प्रारम्भसे ही शेष ज्ञानावरणादि कर्मोके गुणश्रेणिनिक्षेपके सदृश होकर भी गलित शेष गुणिश्र णिनिक्षेप होता है । यह विशेषता आगे भी जान लेनी चाहिये | तदनन्तर यह जीव क्रमसे पुरुषवेद का बन्धक होता है तथा उसी समय पुरुषवेद और छह नोकषाय ये सात कर्म प्रशस्त उपशामनासे अनुपशान्त हो जाते हैं । साथ ही उसी समय सात नोकषायों का अपकर्षण कर पुरुषवेदकी उदयादि गुणश्रेणि रचना करता है तथा शेष छह कर्मोंकी उदय बाह्य गुणश्रेणि रचना करता है । इसके बाद स्त्रीवेद और नपुंसक वेदको अनुपशान्त करते हुए उनकी उदय बाह्य गुणश्रेणि रचना करता है । फिर क्रमसे अन्तरकरण करनेके कालको प्राप्त करनेके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ये कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं - ( १ ) अभीत्तक जो मोहनीयका एक स्थानीय बन्ध-उदय होता रहा वह द्विस्थानीय होने लगता है । (२) उपशमश्र णिपर चढ़ते समय छह आवलि कालके बाद जो उदीरणाका नियम था वह नहीं रहता । यहाँ चूर्णिसूत्र में 'सर्व' पद दिया है सो उसपरसे यह अर्थ फलित किया गया है कि उतरते समय सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे ही यह नियम नहीं रहता । (३) अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय से मोहनका अनानुपूर्वी संक्रम होने लगता है । साथ ही क्रोधसंजलनका भी इसी प्रकार अनानुपूर्वी संक्रम होने लगता है । (४) चढ़ते समय जिस स्थानपर कर्मोंका देशघातीकरण हुआ था उनका पुनः सर्वघातीकरण हो जाता है। तथा उपशमश्र णिपर चढ़ते समय जो असंख्यात समयप्रबद्धोंकी प्रति समय उदीरणा होने लगी थी वह नियम अब नहीं रहता । निर्जराका जो सामान्य क्रम है वह यहाँसे प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार क्रम-क्रम से प्रारम्भसे ही स्थितिबन्ध और अनुभाग को बढ़ाता हुआ अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । तदनन्तर यह जीव अपूर्वकरणमें प्रवेश करके उसके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामना करण निघत्तीकरण और निकाचनाकरणको उद्घाटित करनेके साथ हास्य-शोक और रति-अरति इनमें से किसी एक युगलका तथा भय या जुगुप्साका या दोनोंका या किसीका भी नहीं अनियमसे उदोरक होता है । पुनः अपूर्वकरण गुणस्थानका संख्यातवाँ भाग जानेपर परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंका बन्धक होता है । फिर अपूर्वकरण गुणस्थानके संख्यात बहुभाग के जानेपर निद्रा और प्रचलाका बन्धक होता है । फिर क्रमसे अपूर्वकरणके अन्तिम समयको प्राप्त करता है । इस प्रकारसे उपशमश्र णिसे उतर कर अधःप्रवृत्तसंयत होकर गुणश्रेणि निक्षेप करता हुआ यह पुराने गुणण निक्षेपसे संख्यातगुणा गुणश्रेणि निक्षेप करता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जब तक यह जीव अपूर्वकरण गुणस्थान में स्थित रहा तब तक गलितशेष गुणश्रेणी निक्षप होता रहा । किन्तु अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय से अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेप
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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