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________________ १५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सारीणमणादेयत्तप्पसंगादो। तम्हा चरित्तमोहणीयक्खवणाए पडिबद्धअट्ठावीसमलगाहाओ तत्थ ताव चउण्हं पट्ठवणमूलगाहाणमेत्थ विहासा कायव्वा त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । एवमेदं पदण्णाय संपहि तासिं विहासणं कुणमाणो तन्विसयमेव पुच्छावक्कमाह * तं जहा। ६९. सुगममेदं पुच्छावक्कं । एवं च पुच्छाविसईकयंगाहासुत्तत्थविहासणे कायब्वे जहा उद्देसो तहा जिद्द सो ति णायमवलंबिय पढमगाहाए ताव अत्थविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं मणइ * 'संकामणपट्टबगस्स परिणामो केरिसो भवे ति विहासा । १०. संकामणं णाम चारित्तमोहादीणं कम्माणं खविज्जमाणाणं अण्णपयडीसु संच्छोहणं । संछोहणाए विणा खविज्जमाणाणं लोहसंजलणादीणं कथं संकामणववहारो त्तिणासंकणिज्जं; संकामणसद्दस्स खवणपज्जायवाचित्तेण तत्थावलंबणादो। संकामणस्स पट्ठवगो संकामणपट्ठवगो, कसायक्खवणाए आढवगो त्ति वुत्तं होइ । तस्स परिणामो पणिधाणविसेसो केरिसो किंपयारो भवे त्ति पुच्छा सुत्तमेदं । एदस्स णिण्णयकरणमेरिसो नुसारी जीवोंके लिए उसके अनुपादेयपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिये चारित्रमोहनीयकी क्षपणासे सम्बन्ध रखनेवाली अट्ठाईस मूल गाथाएं हैं। उनमेंसे प्रकृतमें सर्वप्रथम प्रस्थापनासम्बन्धी चार मूल गाथाओंकी यहाँपर विभाषा करनी चाहिये यह इस सूत्रका भावार्थ है। इस प्रकार यह प्रतिज्ञा करके अब उनकी विभाषा करते हुए तद्विषयक ही पृच्छावाक्यको कहते हैं * वह जैसे। ६९. यह पृच्छावाक्य सुगम है । इस प्रकार पृच्छाके विषय किये गये गाथासूत्रके अर्थकी विभाषा करनेपर 'उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायका अवलम्बन लेकर सर्वप्रथम प्रथम गाथाके अर्थको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * 'संक्रामणके प्रस्थापकका परिणाम कैसा होता है इसकी विभाषा करते हैं। $ १०. जिन चारित्रमोहनीय आदि कर्मोंका क्षपण करनेवाले हैं उनका अन्य प्रकृतियोंमें निक्षेपण करनेका नाम संक्रामण है।। शंका-क्षपित किये जानेवाले लोभसंज्वलन आदिमें संक्रामण व्यवहार कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि गाथासूत्रमें संक्रामण शब्दका क्षपणापर्यायके वाचकरूपसे अवलम्बन लिया गया है। संक्रामणका प्रस्थापक जीव संक्रामणप्रस्थापक अर्थात् कषायोंकी क्षपणाका आरम्भ करनेवाला होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसका परिणाम प्रणिधानविशेष कैसा अर्थात् किस प्रकारका होता है इस प्रकार यह पृच्छासूत्र है। इसका निर्णय करना कि इसका ऐसा परिणाम १. ताप्रती हा[ओ]सु इति पाठः । २. ता०प्रती -कयाणं गाहा -इति पाठः। ३. ता०प्रती भवे[दि] त्ति इति पाठः । क.प्रतो भवदि त्ति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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