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________________ खवगसेढिजोग्गो को होदि त्ति णिद्देसो १५३ * तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अप्पा इदि कटु इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियव्वाओ। ७. तदो द्विदि-अणुमागाणं विरचणादो अणंतरमिमा परूवणा आढवेयव्वा त्ति वुत्तं होइ । तं जहा-अधापवत्तकरणपढमसमयप्पहुडि पडिसमयमणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो डिदि-अणुभागखंडयघादेहिं विणा सगद्धाए संखेज्जसहस्समेत्ताणि द्विदिबंधोसरणाणि अप्पसत्थाणं कम्माणं पडिसमयमणंतगुणहीणमणुभागबंधं विट्ठाणियं, पसत्थाणमणंतगुणं चउट्टाणियमणुभागबंधं च करेमाणो अधापवत्तकरणद्धाए चरिमसमयं कमेण संपत्तो। ८. ताचे अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अप्पा वट्टदि त्ति कटु इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियव्वाओ भवंति; सुत्तेण विणा पयदत्थपरूवणाए सुत्ताणु विशेषार्थ-यहाँपर विशुद्धिका अर्थ शुभ और शुद्ध परिणाम है । उनमें से शुद्धपरिणाम शुभाशुभ परिणामोंसे रहित संवर और निर्जरारूप है । जो शुभ परिणामसहित है। उसके साथ शुभ परिणामको निमित्त कर अशुभ प्रकृतियोंका तत्प्रायोग्य अपने योग्य जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक द्विस्थानीय अनुभाग होता है और शुभ प्रकृतियोंका तत्प्रायोग्य अपने जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट अनुभागतक चतु:स्थानीय अनुभाग होता है । ऐसे अनुभागसे युक्त यह जीव अगले समयमें अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रवेश करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आगे अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें उत्तरोत्तर हानि होती जाती है और शुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। इसका मूल कारण उत्तरोत्तर हानिरूप कषायपरिणाम है। हानि होनेसे उत्तपरोत्तर शेष रहे कषायपरिणामके अनुसार लेश्यामें विशुद्धि आती जाती है। उस कारण तो शुभ कर्मोके अनुभागमें वृद्धि होती जाती है और जो प्रत्येक समयमें कषायपरिणाममें हानि होकर शुद्धिकी प्राप्ति होती है वह संवर-निर्जराका हेतु होती है। शुभ और शुद्ध परिणामको यह व्यवस्था दशवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक चलती रहती है। ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें कषायका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसलिये वहां केवल शुद्ध परिणाम ही होता है। ___ * तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिस समयमें आत्मा है ऐसा समझकर इन चार गाथाओंकी विभाषा करनी चाहिये । ६७. 'तदो' अर्थात् स्थिति और अनुभागका विन्यास करनेके अनन्तर यह प्ररूपणा आरम्भ करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह जैसे-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता हुआ यह जीव स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातके बिना अपने कालके भीतर स्थितिबन्धापसरणोंको तथा अप्रशस्त कर्मोके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे होन द्विस्थानीय अनुभागबन्धको और प्रशस्त कर्मोके उत्तरोत्तर अनन्तगुणे चतुःस्थानीय अनुभागबन्धको करता हुआ क्रमसे अधःप्रवृत्तकरके अन्तिम समयको प्राप्त होता है। १८. अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें आत्मा है ऐसा समझकर उस समय इन चार सूत्रगाथाओंकी विभाषा करनी चाहिये, क्योंकि सूत्रके बिना प्रकृत अर्थको प्ररूपणा करनेपर सूत्रा ता प्रतौ वड्ढदि इति पाठः । २०
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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