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________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे विरोहाभावादो। एगफद्दयावलिया त्ति समासणिद्देसो एसो; तेणेवमेत्थ समासकायव्वा-फद्दयाणमावलिया फद्दयावलिया, एगा च सा फद्दयावलिया च एगफद्दयावलिया ति । तदो कम्म पडि एगेगा फद्दयओली अप्पप्पणो जहण्णफद्दयप्पहुडि जाव उक्कस्सयफद्दयं ति रचेयव्वा त्ति भणिदं होदि। किं पुण कारणमेदेसिमणुभागफद्दयाणमेगावलियाए विरचणा एत्थ कीरदि ति णासंकणिज्जं; एदेण विण्णासेण ठिदाणमणुभागफद्दयाणमेत्तिये भागे घेत्तूण अपुव्वाणियट्टिकरणेसु अणुभागखंडयघादमाढवेदि चि जाणावणट्ठमेत्थ तासिं तहाविण्णासकरणादो। ... ६. जइ वि पसत्थाणं कम्माणं विसोहीए अणुभागघादो गत्थि त्ति, अप्पसत्थाणं चे कम्माणमिह घादिज्जमाणाणमणुभागविण्णासविसेसो उवजुज्जंतओ; तो वि अन्वुप्पण्णजणवप्पायणट्ठमविसेसेण सन्वेसिं चेव कम्माणमाउगवज्जाणमणुभागविण्णासो सुत्तयारेण णिट्ठिी त्ति दट्ठव्वो। तत्थ अप्पसत्थाणं पयडीणं देस-सव्वघादीणमघादीणं च अप्पप्पणो जहण्णफद्दयप्पहुडि जाव दारुअसमाणाणंतिमभागविसयतप्पाओग्गुकस्सफद्दयं ति ताव विद्याणियाणुभागविण्णासो एत्थ कायव्वो। पसत्थाणं पुण चउहाणिओ. अणुभागविण्णासो जहण्णफद्दयप्पहुडि जाव तप्पाओग्गुक्कस्सफद्दयं ति ताव एत्थ कायब्वो; विसोहीए सुहाणमणुभागवुद्धिं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। इसमें कोई विरोध नहीं आता है। 'एगफद्दयावलिया' यह समसित पदका निर्देश है, इसलिये यहाँपर इस प्रकार समासकी योजना करनी चाहिये-स्पर्धकोंको आवलि स्पर्धकावलि, एक जो स्पर्धकावलि एक स्पर्धकावलि । इसलिये प्रत्येक कर्मके प्रति अपने-अपने जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धकतक एक-एक स्पर्धकौणि रचनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-इन अनुभागस्पर्धकोंकी एक श्रेणिरूपसे रचना यहाँपर किसलिये की जाती है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस रचनारूपसे स्थित अनुभागस्पर्धकोंके इतने भागको ग्रहण कर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें अनुभागकाण्डकघात आरम्भ करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये उनकी उस रूपसे रचना की है। ६६. यद्यपि विशुद्धिके कारण प्रशस्त कर्मोंका अनुभागघात नहीं होता है, इसलिए घाते जानेवाले अप्रशस्त कर्मोंके ही अनुभागका रचना विशेष उपयोगी है तो भी बालजनोंको व्युत्पन्न करनेके लिए आयुकर्मको छोड़कर सामान्यसे सभी कर्मोके अनुभागविन्यासका सूत्रकारने निर्देश किया है ऐसा यहाँ जानना चाहिये। उनमेंसें जो देशघाति और सर्वघाति अप्रशस्त प्रकृतियां हैं उनके अपने-अपने जघन्य स्पर्धकसे लेकर दारुसमान अनन्तवें भागको विषय करनेवाले तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्पर्धकतक द्विस्थानीय अनुभागका विन्यास यहाँपर करना चाहिये । परन्तु प्रशस्त कर्मोका जघन्य स्पर्धकसे लेकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्पर्धकतक चतुःस्थानीय अनुभागविन्यास यहाँपर करना चाहिये, क्योंकि विशुद्धिके बलसे शुभ प्रकृतियोंकी अनुभागवृद्धिको छोड़कर अन्य प्रकार असम्भव है। १. ता प्रतो जणुणवुप्पायट्ठ-इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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