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________________ खवगसेढोए पारम्भो १५१ कम्माणं दिट्ठीओ ओट्टिदव्वाओ । विज्जमाण संतकम्मस्स वि मणुसाउअस्स सहावदो चेव करणपरिणामेहिं ट्ठिदि-अणुभागख 'डयघादसंभवाणुवलंभादो । * तेसिं चेव अणुभागफद्दयाणं जहण्णफद्दय पहुडि एगफद्दयआवलिया ओदिव्वा । $ ५. जाणि कम्माणि अत्थिं ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, तेणेवमहिसंबंधो कायन्वो — जाणि कम्माणि चारित मोहणीयपुरस्सराणि संकामणपट्टवयम्मि अस्थि, तेसिं चेव कम्माणमणुभागफद्दयाणं जं जहण्णफद्दयं तत्तो प्पहुडि एगफद्दयावलिया ओट्टियव्वाति । तत्थ जहण्णफद्दय पहुडि सि वृत्ते जहण्णफद्दयमादिं काहूणे ति घेत्तव्वं; पहुडिसद्दुच्चारेण सव्वत्थ विवक्खिरण सह तत्तो उवरिमाणं गहणसिद्धीए यह वचन कहा है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मको छोड़कर ही कर्मों की स्थितियोंकी रचना करनी चाहिये, क्योंकि विद्यमान अर्थात् भुज्यमान सत्कर्मरूप मनुष्यायुका स्वभावसे ही करणपरिणामोंके द्वारा स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । विशेषार्थ - क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला जीव परभवसम्बन्धी किसी भी आयुका बन्ध नहीं करता । मात्र उसके एक भुज्यमान मनुष्यायुकी सत्ता अवश्य होती है, पर उसका न तो स्थितिकाण्डकघात होता है और न ही अनुभागकाण्डकघात होता है। इसके तीर्थंकर प्रकृति और आहारकfast सत्ता किसी होती है और किसीके नहीं होती है यह स्पष्ट ही है। जिसके होती है उसके इन प्रकृतियोंका काण्डकघात अवश्य होता है । यहाँ आहारकद्विकसे आहारक शरीर, आहारक आंगोर्पाग, आहारकबन्धन और आहारकसंघात इन चारोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सत्ताकी अपेक्षा इनकी पृथक्-पृथक् गणना की गई है। एक श्रेणिमें ऊर्ध्व रचना करना चाहिये इसका अर्थ है कि एक-एक समयके क्रमसे पहले अधःप्रवृत्तकरणके क्रमवृद्धिरूप परिणाम स्थापित करने चाहिये। उसके बाद उन परिणामोंसे लगकर अपूर्वकरणके क्रमिक विशुद्धिको लिये हुए परिणाम स्थापित करने चाहिये और अन्तमें अनिवृत्तिकरणके परिणाम स्थापित करने चाहिये । काण्डकघातमें एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें एक-एक काण्डकप्रमाण स्थितियों और अनुभागको फालिक्रमसे घटाया जाता है । एक स्थितिकाण्डकघात के कालमें हजारों अनुभागकाण्डकघात हो लेते हैं इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । यह अनुभागकाण्डकघात अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही होता है। स्थितिकाण्डकघात सभी प्रकृतियोंका होता है । मात्र आयुकर्म इसका अपवाद है । * उन्हीं कर्मोंके अनुभागस्पर्धकोंकी जघन्य स्पर्धकसे लेकर एक स्पर्धक श्रेणिरूपसे रचना करनी चाहिये । ५. जाणि कम्माणि अस्थि' इस वचनका पूर्व सूत्रसे अनुवर्तन होता है, इसलिये ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये - संक्रामण प्रस्थापकके चारिणमोहनीय प्रभृति जो कर्म हैं उन्हीं कर्मोके अनुभागस्पर्धकसम्बन्धी जो जघन्य स्पर्धक है उससे लेकर एक स्पर्धकपंक्ति रचनी चाहिये । सूत्रमें 'जहण्णफडुयप्प हुडि' ऐसा कहनेपर जवन्य स्पर्धकसे लेकर ऐसा ग्रहण करना चाहिये । प्रभृति शब्द का उच्चारण करनेसे सर्वत्र विवक्षित स्पर्धक के साथ ऊपरके स्पर्धकों का ग्रहण होता है १. ता० प्रती ओट्टियव्वाओ इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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