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________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे विणा बालजणाणं तन्विसयपडिबोहाणुप्पत्तीदो । * तदो जाणि कम्माणि अत्थि तेसिं हिदीओ ओहिदव्वाओ । ४. अपुव्व करणपढमसमयप्पहुडि द्विदिखंडयघादं करेमाणो एदासि द्विदीणमग्गग्गादो एवडियं भागं घेत्तण घादेदि त्ति जाणावणणिमित्तमेत्थ णाणावरणादिसव्वकम्माणं द्विदीओ पुध पुध विरचेयपाओ त्ति भणिदं होइ । एत्थ 'जाणि कम्माणि अस्थि' ति भणंतेण पुत्पमेव खविदाणं मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणंताणुबंधीणं च एदम्मि विसये संभवाभावो सूचिदो। अण्णं च खवणं पट्टवेमाणा तित्थयराहारदुगसंतकम्मिया वि अस्थि, तदसंतकम्मिया वि । तत्थ जदि तेसिं संतकम्मिओ खवणं पट्टवेइ तो एदेसि पि कम्माणं द्विदीओ ओट्टेयवाओ। अण्णहा ण ओझेदवाओ त्ति जाणावणटुं च जेसि कम्माणं संतमत्थि त्ति भणिदं । गवरि आउगवज्जाणं चेव शंका-उक्त परिणामोंकी यहाँपर इस प्रकार रचना किसलिये की जाती है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस प्रकारकी रचना किये बिना प्रकृत विषयका प्रतिबोध देना नहीं बन सकता। विशेषार्थ-प्रकृतमें यह बतलाया गया है कि जिसने पहले कभी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा की है वहीं संयत जीव चारित्रमोहनीयकी क्षपणा प्रारम्भ करनेका अधिकारी होता है। ऐसा करते हुए भी उसके भी अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन प्रकारके करण परिणाम नियनसे होते हैं। लक्षण पूर्ववत् ही हैं । मात्र ये परिणाम पूर्वमें की गई उपशामना आदि क्रियाओंके कालमें होनेवाले परिणामोंसे अनन्तगुणे विशुद्धतर होते हैं । तथा पूर्वमें उपशामना आदि क्रियाओंके करने में जितना काल लगता था उससे यहाँ उन करणोंमें लगनेवाला काल संख्यातगुणा हीन होता है। एक बात यहाँ यह भी स्पष्ट की गई है कि जिनके ये अधःप्रवृत्तकरण परिणाम होते हैं, उनके बाद उनसे लगकर अपूर्वकरणपरिणाम होते हैं और अन्तमें अपूर्वकरण परिणामोंसे लगकर अनिवृत्तिकरण परिणाम होते हैं। इसीका नाम ऊर्ध्व एक श्रेणिरूपसे रचता है ऐसा समझना चाहिये। * इसलिए जो कर्म हैं उनकी स्थितियोंकी रचना करनी चाहिये । ६४. अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर स्थितिकाण्डकघात करनेवाला जीव इन स्थितियोंके उत्तरोत्तर अग्र-अग्रभागसे इतने भागको ग्रहण कर घातता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहाँपर ज्ञानावरणादि सभी कर्मोंकी स्थितियोंको पृथक्-पृथक् रचना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर 'जो कर्म हैं' ऐसा कथन करते हुए चूर्णिसूत्रकारने पहले ही जिनका क्षय कर दिया है ऐसी मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धोचतुष्क इन प्रकृतियों की इस स्थानमें सम्भावना नहीं है यह सूचित किया है। दूसरी बात यह है कि जो चारित्रमोहनीयको क्षपणाका प्रारम्भ करता है वह तीर्थंकर और आहारकद्विकका सत्कर्मवाला भी होता है और उनके सत्कर्मवाला नहीं भी होता है। उनमें से यदि उनका सत्कर्मवाला क्षपणाका प्रारम्भ करता है तो इन कर्मोकी स्थितियोंकी भी रचना करनी चाहिये, अन्यथा इनकी स्थितियोंकी रचना नहीं करनी चाहिये इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'जिन कर्मोंकी सत्ता है'
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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