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________________ १३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सुसरमेत्तीओ आवलियाओ त्ति जदि घेप्पइ तो खुद्दाभवग्गहणं सासणद्धादो दुगुणमेत्तमागच्छइ । " चेदमिच्छिज्जदे, सासणद्धादो संखेज्जगुणहेटिमद्धाहिंतो एदस्स बहुत्तण्णहाणुववत्तीदो, एत्थावलियगुणगारबहुत्तब्भुवगमादो । तम्हा संखेज्जसहस्सकोडाकोडिमेत्ताहिं आवलियाहिं पादेक्कमसंखेज्जसमयावच्छिण्णपमाणाहि एगो उस्सासो णिप्पज्जदि । तस्स च देसूणट्ठारसभागमेत्तमेदं खुदाभवग्गहणमिदि घेत्तव्वं । तम्हा णवुसयवेदोवसामणद्धादो खुद्दाभवग्गहणं विसेसाहियमिदि सुसंबद्धं । * उवसंतद्धा दुगुणा । 5 ३१४. किं कारणं १ खुद्दाभवग्गहणपमाणं द्वविय दुगुणिदे उवसंतद्धा समुप्पज्जदि त्ति एदेणेव सुत्तेण सुपरिच्छियत्तादो । * पुरिसवेदस्स पढमहिदी विसेसाहिया। $ ३१५. तं जहा–पुरिसवेदपढमद्विदी णाम अनुसयवेदोवसामणद्धा इत्थिवेदोवसामणद्धा छण्णोकसायोवसामणा त्ति एदासिं तिण्हमद्धाणं समूहमेत्ती होदि । एदाओ च अद्धाओ जहाकम विसेसहीणाओ। एवं च संते एत्थतणणवुसयवेदोवसामणद्धादो विसेसाहियभावेण परिच्छिण्णखुद्धाभवग्गहणं पेक्खियण दुगुणपमाणादो उवसंतकसायद्धादो तिण्हमेदासिमद्धाणं समूहमेत्ती पुरिसवेदपढमहिदी बिसेसाहिया त्ति पत्थि संदेही देसूणदुभागमेत्तेण । तत्तो एदिस्से विसेसाहियभावस्स परिप्फुडमुवलंभादो। जानना चाहिये । वह जैसे-एक उच्छ्वासके कालके भीतर सबसे कम दोसो सोलह आवलियाँ यदि ग्रहण करते हैं तो सासादन गुणस्थानके कालसे क्षुल्लक भवग्रहण दुगुणा आता है। परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि संख्यातगुणे अधस्तन कालरूप सासादन गुणस्थानके कालसे इसका बहुतपना अन्यथा बन नहीं सकता है, क्योंकि यहाँपर आवलिके गुणकारका बहुत्व स्वीकार किया गया है। इसलिये असंख्यात समयवाली एक आवलिके प्रमाणसे युक्त ऐसी संख्यात हजार कोड़ाकोडोप्रमाण आवलियोंके द्वारा एक उच्छ्वास निष्पन्न होता है और उसके कुछ कम अठारहवें भागप्रमाण यह क्षुल्लक भवग्रहण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। इसलिए नपुंसकवेदके उपशामनाकालसे क्षुल्लक भवग्रहण विशेष अधिक है इस प्रकार यह सब कथन सूसम्बद्ध है। * उपशान्तकाल दुगुणा है। $३१४. क्योंकि क्षुल्लक भवग्रहणके प्रमाणको स्थापित कर दुगुणा करनेपर उपशान्तकाल उत्पन्न होता है इस प्रकार इसी सूत्रसे अच्छी तरह ज्ञात होता है । * पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति विशेष अधिक है । $ ३१५. वह जैसे-नपुंसकवेदका उपशामनाकाल, स्त्रीवेदका उपशामनाकाल और छह नोकषायोंकी उपशामना इन तीनोंके समूहप्रमाण पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति होती है और ये काल क्रमसे विशेष अधिक हैं और ऐसा होनेपर यहाँपर नपूंसकवेदके उपशामनाकालसे विशेष अधिकरूपसे ज्ञात क्षुल्लक भवग्रहणको देखते हुए दुगुणे प्रमाणवाले उपशान्तकषायके कालसे इन तीन कालोंके समूहप्रमाण पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति विशेष अधिक है इसमें कोई सन्देह नहीं, क्योंकि
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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