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________________ भाग-14 उवसमसेढीए अप्पाबहुअपरूवणा १२९ * णवंसयवेदस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । $ ३११. एदाओ दो वि अद्धाओ हेट्ठा लद्धप्पसरूवाओ तेण जहाकम विसेसाहियाओ जादाओ। * खुद्दाभवग्गहणं विसेसाहियं । 5 ३१२. किं खुदाभवग्गहणं णाम ? वुच्चदे-सव्वेहित्तो मवग्गहणेहितो जं खुद्दयमइदहरयं भवग्गहणं तं खुद्दाभवग्गहणमिदि भण्णदे। एदं च एगुस्सासस्स संखेज्जावलियसमूहणिप्पण्णस्स सादिरेयद्वारसभागमेत्तं होदूण संखेज्जावलियसहस्सपमाणमिदि घेत्तव्वं । तं जहा तिण्णिसया'छत्तीसा छासहिसहस्समेव मरणाणि । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दमवा ॥१॥ तिण्णिसहस्सा सत्तयसदाणि तेवत्तरिं च उस्सासा । एसो हवइ मुहुत्तो सव्वेसिं चेव मणुआणं ॥२॥ इदि । $ ३१३. एदे तिण्णिसहस्ससत्तयतेवत्तरिमेत्ते एगमुहुत्तुस्सासे दृविय एगमुहुत्तभंतरखुद्दभवसलाहिं पुव्वगाहाणिहिट्ठपमाणाहि ओवट्टिय एगुस्सासस्स सादिरेयट्ठारसमागमेत्तं खुद्दाभवग्गहणपमाणमाणेयव्व।संपहि एवंविहे खुद्दामवग्गहणे संखेज्जावलियाणमस्थित्तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा–एगुस्सासकालभंतरे जहण्णदो वि वेसदसोल * नपुंसकवेदका उपशामनाकाल विशेष अधिक है। ३११. ये दोनों ही काल नीचे अपने स्वरूपका लाभ करते हैं अर्थात् उत्तरोत्तर नीचे प्राप्त होते हैं, इसलिए यथाक्रम विशेष अधिक हो गये हैं। * क्षुल्लक भवग्रहण विशेष अधिक है। ६३१२. शंका-क्षुल्लकभवग्रहण किसे कहते हैं ? समाधान-कहते हैं-सब भवग्रहणोंसे जो क्षुल्लक अर्थात् अतिह्रस्व (अल्प) भवग्रहण होता है उसे क्षुल्लकभवग्रहण कहते हैं और यह संख्यात आवलिप्रमाण कालोंके समूहसे बने हुए एक उच्छ्वासके साधिक अठारवें भागप्रमाण होकर संख्यात हजार आवलिप्रमाण होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । वह जैसे अन्तर्मुहूर्त कालमें छयासठ हजार तीनसौ छत्तीस ६६३३६ मरण होते हैं और उतने ही क्षुल्लकभव होते हैं ॥१॥ सभी मनुष्योंके तीन हजार सातसौ तिहत्तर ३७७३ उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त होता है ॥२॥ ६३१३. एक मुहूर्तके इन तीन हजार सातसौ तिहत्तर उच्छ्वासोंको स्थापित कर पहलेकी गाथामें जिनके प्रमाणका निर्देश किया गया है ऐसे एक मुहूर्तके भीतर प्राप्त क्षुल्लक भवसम्बन्धी शलाकाओंसे भाजित करनेपर एक उच्छ्वासके भीतर साधिक अठारह क्षुल्लक । भवग्रहणोंका प्रमाण ले आना चाहिये। अब इस प्रकारके क्षुल्लक भवग्रहणमें संख्यात आवलियोंका प्रमाण इस प्रकार
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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