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________________ उवसमसेढीए अप्पाबहुअपरूवणा १२३ $ २८६. तं कधं ? अपुवकरणपढमसमये अपुव्वाणियट्टिसुहुमद्धाहितो विसेसाहियभावेण जो णिक्खित्तो गुणसेढिणिक्खेवो सो गलिदसेसो सुहमसांपराइयचरिमसमए अंतोमुहुत्तपमाणो होदूण दीसइ । एवंविहो चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स गुणसेढिणिक्खेवो पुव्विल्लुक्कस्सद्विदिबंधगद्धादो संखेज्जगुणो होदि ति घेत्तव्वं । * तं चेव गुणसेढिसीसयं ति भण्णदि । 5 २८७. जमेदमणंतरपरूविदचरिमसमयसुहुमसांपराइयगुणसेढिणिक्खेवपमाणमुवसंतद्धाए संखेज्जदिभागमेत्तायामं तं चेव गुणसेढिमीमयमिदि भण्णदे। कुदो ? हेडिमाविसेसगलिदसेसगुणसेढिणिक्खेवस्स सीसयभावेणेदस्सावट्ठाणदंसणादो । * उवसंतकसायस्स गुणसेदिणिक्खेवो संखेजगुणो । $ २८८. एसो वि उवसंतद्धार संखेज्जदिमागमेत्तं चेव, किंतु पुन्विन्लगुणसेढिसीसएण ओगाढविसयादो संखेज्जगुणं विसयमोगाहियण द्विदो तेण संखेज्जगुणो जादो। * पडिवदमाणयस्स मुहुमसापराइयद्धा संखेनगुणा । ___$ २८९. एसा वि उवसंतकसायद्धाए संखेज्जदिभागमेत्ती चेव होदूण पुचिल्लगुणसेढिणिक्खेवादो संखेज्जगुणा त्ति गहेयव्वा । ६२८६. शंका-वह कैसे? समाधान-क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके कालसे विशेष अधिकरूपसे जो गुणश्रेणिनिक्षेप निक्षिप्त होता है, गलित शेष वह गुणश्रोणिनिक्षेप सूक्ष्यसाम्परायिक जीवके अन्तिम समयमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण दिखाई देता है। अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका इस प्रकारका गुणश्रेणिनिक्षेप पूर्वके स्थितिबन्धकालसे संख्यातगुणा होता है प्रकृतमें ऐसा ग्रहण करना चाहिये। * वही गुणोणिशीर्ष कहा जाता है। ६२८७. जो यह अनन्तर पूर्व अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके गुणश्रेणिनिक्षेपका प्रमाण कहा है, उपशान्तकषायके कालके संख्यातवें भागप्रमाण वही गुणश्रेणिशीर्ष कहा जाता है, क्योंकि पूर्वमें गलितशेष गुणश्रेणिनिक्षेपका जो शेष रहा उसका शीर्षरूपसे अवस्थान देखा जाता है। * उपशान्तकषायका गुणश्रोणिनिक्षेप संख्यातगुणा है। ६२८८. यह भी उपशान्त कालके संख्यातवें भागप्रमाण ही है। किन्तु पहलेके गुणश्रेणिशीर्षके द्वारा अवगाहित स्थानसे यह संख्यातगुणे स्थानको अवगाहित कर स्थित है, इसलिए संख्यातगुणा हो गया है। श्रेणिसे गिरनेवालेका सूक्ष्मसाम्परायिककाल संख्यातगुणा है । ६२८९. यह भी उपशान्तकषायके कालसे संख्यातवें भागप्रमाण ही है ऐसा होकर भी पूर्वके गुणोणिनिक्षेपसे संख्यातगुणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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