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________________ १२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे घेत्तव्वा । मोहणीयस्स पुण ओदरमाणाणियट्टिपढमट्ठिदिबंध विसये गहेयव्वा । णच तत्तो एदिस्से विसेसाहियत्तमसिद्धं, चडमाणतदद्धाहिंतो ओदरमाणतदद्धाए संकिलेसमाहपेण विसेसाहिय सिद्धीए बाहाणुवलंभादो । एदेण सुत्तणिद्देसेण जाणिज्जदे जहा ओदरमाणस्स सव्वावत्थासु ट्ठिदिअणुभागघादा णत्थि त्ति, जइ अत्थि तो ओदरमाणस्स द्विदिबंधगद्धा सह ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धं पि भणेज्ज । ण च एवं, तहाणुवादो | * अंतरकरणद्धा विसेसाहिया । $ २८४. एसो अंतरफालीणमुक्कीरणकालो गहिदो । एसो चेव तत्थतणडिदिबंध ट्ठिदिखंडे उक्की रणकालो वि, तिण्हमेदेसिं समाणपरिमाणत्तोवलंभादो । ण च एदस्स पुव्विलादो विसेसाहियत्तमसिद्धं उवरिमट्ठिदिबंधगद्धाहिंतो हेट्ठिमट्ठिदिबंध - गाणं जहाकमं विसेसाहिय मावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो । * उक्कस्सिया द्विदिबंधगद्धा ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धा च विसेसाहिया । $ २८५. कुदो १ सव्वकम्माणं पि चडमाणापुव्वकरणपढमसमयाढत्तट्ठिदिबंध - डिदिखंडयुक्कीरणद्वाणं गहणादो । * चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स गुणसेढिणिक्खेवो संवेज्जगुणो | विषयक लेना चाहिये । मोहनीयकर्मका तो श्रेणिसे उतरनेवाले अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्धविषयक लेना चाहिये । और पूर्वके स्थितिबन्ध कालसे यह विशेष अधिक है यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि चढ़नेवाले स्थितिबन्धकालसे उतरनेवाला स्थितिबन्धकाल संक्लेशके माहात्म्यवश विशेष अधिक सिद्ध होता है इसमें कोई बाधा नहीं पाई जाती । साथ ही प्रकृत सूत्र के इस निर्देशसे इस प्रकार भी जाना जाता है कि श्रेणिसे उतरनेवालेके सब अवस्थाओं में स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता, यदि होता तो उतरनेवालेके स्थितिबन्धकालके साथ स्थितिकाण्डक उत्कीरणकाल भी कहते । परन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि उस प्रकार उसका उपदेश पाया नहीं जाता । * अन्तरकरणकाल विशेष अधिक है । § २८४. यह अन्तरफालियोंका उत्कीरणकाल ग्रहण किया है और यही वहाँ सम्बन्धी स्थितिबन्धकाल और स्थितिकाण्डकउत्कीरणकाल भी है, क्योंकि इन तीनोंका समान परिमाण पाया जाता है । और पूर्व कालसे इसका विशेष अधिकपना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उपरिम स्थितिबन्धकालोंसे अधस्तन स्थितिबन्धकालोंके विशेष अधिक रूपसे सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं पाई जाती है । * उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल और स्थितिकाण्डक उत्कीरण काल विशेष अधिक हैं । § २८५. क्योंकि प्रकृतमें सभी कर्मोंके चढ़नेवाले अपूर्वकरणके प्रथम समयमें आरम्भ होनेवाले स्थितिबन्धकाल और स्थितिकाण्डक उत्कीरणकालोंको ग्रहण किया है । * अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका गुणश्र णिनिक्षेप संख्यातगुणा है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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