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________________ १२१ उवसमसेढीए अप्पाबहुअपरूवणा युक्कीरणद्वाए सव्वजहण्णभावेणेत्थ गहणादो । * उक्कस्सिया अणुभागखंडयउक्कीरणद्धा विसेसाहिया । $ २८१. कुदो ? सव्वकम्माणं पि चडमाणापुव्वकरणपढमाणुभागखंडयुक्कीरणद्धाए गहणादो। * जहणिया हिदिवंधगद्धा हिदिखंडयउक्कीरणद्धा च तुल्लाओ संखेनगुणाओ। $ २८२. मोहणीयस्स जहण्णहिदिबंधगद्धा णाम अणियट्टिकरणचरिमावत्थाए गहेयव्वा, तत्तो परं तस्स बंधवोच्छेदसणादो। जहण्णद्विदिखंडयुक्कीरणद्धा पुण एत्थ पत्थि, अंतरकरणादो उवरि मोहणीयस्स डिदिघादासं मवादो। सेसकम्माणं पुण सुहुमसांपराइयचरिमावस्थाए दो वि एदाओ जहण्णद्धाओ घेत्तव्याओ, तत्थेव तासिं जहण्णभावोवलद्धीदो । ण च एदासिं पुम्विन्लादो संखेज्जगुणत्तमसिद्धं, एगडिदिखंडयुक्कीरणकालब्भंतरे सव्वजहण्यणे वि संखेज्जसहस्समेत्ताणमणुभागखंडयाणमत्थित्तोवएसबलेण तस्सिद्धीदो। * पडिवदमाणगस्स जहणिया हिदिबंधगद्धा विसेसाहिया। ६२८३. एसा णाणावरणादीणमोदरमाणमुहुमसांपराइयपडमदिदिबंधविसये जो वहाँ सम्बन्धी अन्तिम अनुभागकाण्डक उत्कीरणकाल होता है उन दोनोंको यहां ग्रहण किया है। * अनुभागकाण्डकका उत्कृष्ट उत्कीरण काल विशेष अधिक है। २८१. क्योंकि श्रेणिपर चढ़नेवाले अपूर्वकरणके सभी कर्मोसम्बन्धी प्रथम अनुभागकाण्डकके उत्कीरण कालका यहाँ ग्रहण किया है। * जघन्य स्थितिबन्ध काल और स्थितिकाण्डक उत्कीरण काल दोनों समान होकर संख्यातगुणे हैं। २८२. अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम अवस्थासम्बन्धी मोहनीयके जघन्य स्थितिबन्ध कालको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके आगे उसको बन्धव्युच्छित्ति देखी जाती है। परन्तु यहाँपर मोहनीयकर्मसम्बन्धी स्थितिकाण्डकका जघन्य उत्कीरण काल नहीं होता, क्योंकि अन्तरकरण करनेके बाद आगे मोहनीयकर्मका स्थितिघात असम्भव है। सभी कर्मोके सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानको अन्तिम अवस्थामें तो ये दोनों ही जघन्य ग्रहण करने चाहिये, क्योंकि वहींपर ये दोनों जघन्यरूपसे उपलब्ध होते हैं। और ये पहलेके पदसे संख्यातगुणे होते हैं यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि सबसे जघन्य एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालके भीतर भी संख्यात हजार अनुभागकाण्डकोंके उपदेशके बलसे वे संख्यातगुणे हैं यह सिद्ध होता है । * श्रेणिसे गिरनेवाले जीवका जघन्य स्थितिबन्ध काल विशेष अधिक है। $ २८३. उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके यह ज्ञानावरणादिसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्ध
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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