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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ २७७. सुगमं । एवमेत्तियेण पबंघेण णाणत्तगवेसणं काढूण संपहि पदपरिवूरणबीजपदा लंबणेण चडमाणोदरमाणोव सामगविसयाणमेत्थोवजोगीणं पदविसेसाणमप्पा बहुअपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाढवे — १२० * एत्तो पुरिसवेदेण सह कोहेण उवट्ठिदस्स उवसामगस्स पढमसमयअपुव्वकरणमादिं काढूण जाव पडिवदमाणगस्स चरिमसमयअपुव्वकरणो त्ति एदिस्से अद्धाए जाणि कालसंजुत्ताणि पदाणि तेसिमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । $ २७८· पुरिसवेदकोहसंजलणाणं उदएण जो सेढिमारुढो तमहिकिच्च तस्सेव पढमसमयअपुव्वकरणमादिं काढूण जाव पडिवदमाणापुव्त्रकरणचरिमसमयो त्ति जाणि कालसंजुत्ताणि पदाणि जहण्णुक्कस्साणु मागखंडयुक्कीरणद्धादिपडिबद्धाणि तेसिमिदाणिमप्पाबहुअं वत्तहस्सामो त्ति पहण्णावक्कमेदं । * तं जहा । $ २७९. सुगममेदं पयदप्पाबहुअपरूवणावसरकरणडुं पुच्छावक्कं । * सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडयउक्कीरणद्धा । $ २८०. कुदो ? णाणावरणादिकम्माणं चडमाणसुहुमसां पराइय चरिमाणुभागखंडयुक्कीरणद्धाए मोहणीयस्स वि अंतरकरणे कीरमाणे तत्थतणचरिमाणुभागखंड $ २७७. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा नानापनका अनुसन्धान करके अब पदपरिपूरणरूप बीज पदका अवलम्बन करके चढ़ते हुए और उतरते हुए उपशामकविषयक तथा यहाँ उपयोगी पदविशेषोंके अल्पबहुत्वका प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं। - * अब इससे आगे पुरुवेदके साथ संज्वलन क्रोधकषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीव अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गिरनेवाले उसी उपशामकके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक कालसंयुक्त अर्थात् कालकी अपेक्षा जितने पद हैं उनके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे । $ २७८. पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनके उदयसे जो श्रेणिपर चढ़ा है उसे अधिकृत कर उसीके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गिरनेवाले उसीके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग काण्डकउत्कीरण काल आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले कालविशिष्ट जो पद हैं उनके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । * वे जैसे । $ २७९. प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाका अवसर देनेके लिये आया हुआ यह सूत्र सुगम है । * अनुभागकाण्डकका जघन्य उत्कीरणा काल सबसे थोड़ा है। $ २८०. क्योंकि श्रेणिपर चढ़नेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकके ज्ञानावरणादि कर्मोंका जो अन्तिम समयसम्बन्धी अनुभागकाण्डक उत्कीरणकाल होता है और मोहनीयकर्मका अन्तरकरण करनेपर
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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