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________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे २६६. अणियट्टिकरणपवेसाणंतरमेव तिविहं लोभमोकड्डियूण गुणसेढिणिक्खेवं कुणमाणो इदरेहि णाणावरणादिकम्मेहिं सरिसायामेण गुणसेढिणिक्खेवमेसो करेदि त्ति एदमेत्थ णाणत्तं ददुव्वं, जस्स कसायस्सोदयेण सेढिमारूढो तम्हि ओकडिदे णाणावरणादिकम्मेहिं सरिसगुणसेढिणिक्खेवपुरस्सरमंतरावरणं करेदि ति णियमदंसणादो । * लोभं वेदेमाणो सेसे कसाए ओकडिहिदि । ६२६७. सुगमं । * गुणसेदिणिक्खेवो इदरेहिं कम्मेहिं गुणसेढिणिक्खेवेण सम्वेसिं कम्माएं सरिसो । सेसे सेसे च णिक्विवदि । 5२६८. एदं पि सुगमं। * एवाणि गाणताणि जो कोहेण उषसामेदुमुवट्ठादि तेण सह सण्णिकासिजमाणाणि। 5 २६९. कोहसंजलणोदएण जो उवसामेदुमुवढिदो तेण सह सण्णियासं काणेदाणि णाणत्ताणि माणमायालोहोदयिन्लोवसामगाणं परूविदाणि त्ति वुत्तं होदि । २६६. अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेके अनन्तर समयसे ही यह जीव तीन प्रकारके लोभोंका अपकर्षण करके गुणश्रेणिनिक्षेपको करता हुआ इतर मनावरणादि कर्मोंके सदृश आयामवाले गुणश्रेणिनिक्षेपको करता है । इस प्रकार यह नानापन यहाँपर जानना चाहिये, क्योंकि जिस कषायके उदयसे 'श्रेणिपर चढ़ता है उसका अपकर्षण कर ज्ञानावरणादि कर्मोके समान गुणश्रेणिनिक्षेपपूर्वक अन्तरको भरता है ऐसा नियम देखा जाता है। . वह लोमका वेदन करता हुआ शेष कषायोंका अपकर्पण करता है। 5 २६७. यह सूत्र सुगम है। * उसके सब कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप इतर कर्मोंके गुणश्रेणिनिक्षेपके सदृश होता है तथा वह शेष-शेषमें निक्षेप करता है। ६२६८. यह सूत्र भी सुगम है। * जो क्रोधके उदयके साथ श्रेणिपर चढ़कर कषायोंको उपशमानेके लिए उद्यत हुआ है उसके साथ सन्निकर्ष करते हुए ये नानापन जानना चाहिए । 5 २६९. जो पुरुष क्रोधसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर चढ़कर कषायोंको उपशमानेके लिए उपस्थित हुआ है उसके साथ सन्निकर्ष अर्थात् मिलान करके मान, माया और लोभके उदयवाले उपशामकोंके जो नानापन प्राप्त होता है उसकी प्ररूपणा की यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-एक जीव क्रोधकषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता और उतरता है और दूसरा जीव मानकषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता और उतरता है तो उन दोनोंकी प्ररूपणामें जो भेद हो १. ताप्रती जो कोहेण इत्यतः सण्णिकासिज्जमाणाणि इति यावत् टीकायां सम्मिलितः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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