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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * उवसंतेवाणिं णत्थि चेव णाणत्तं । ६२४६. सुगमं ।
* तस्स चेव माणेण उवढियूण तदो पडिवविदूण लोभं वेदेतस्स णत्थि णाणत्तं ।
६२४७. सुगमं । * मायं वेदेंतस्स पत्थि णाणत्तं । ६२४८. एदं पि सुबोहं।
* माणं वेश्यमाणस्स ताव णाणत्तं जाव कोहों ण ओकहिज्जदि । कोहे ओकहिदे कोधस्स उदयादिगुणसेढी णत्थि। माणो चेव वेदिजदि ।
$ २४९. कोहस्स उदयादिगुणसेढी णत्थि ति एदमेगणाणत्तं, माणो चेव वेदिज्जदि ति विदियं णाणत्तमिदि । एवमेदाणि दोण्णि णाणत्ताणि एत्थ दट्ठन्वाणि ।
विशेषार्थ-पुरुषवेद और मानसंज्वलनके उदयसे जो श्रेणिपर चढ़ता है वह उसी विधिसे मान, माया और लोभकी उतने ही कालमें उपशामना करता है जिस विधिसे पुरुषवेद और क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव जितने कालमें उनकी उपशामना करता है, इसलिए यहाँ नानात्व का निषेध किया है।
* इनके उपशान्त होनेपर भी कोई नानापन नहीं है। ६२४६. यह सूत्र सुगम है।
* मानकषायके साथ श्रेणिपर चढ़कर और वहांसे लौटकर लोभका वेदन करनेवाले उसी जीवके भी नानापन नहीं है।
$ २४७. यह सूत्र सुगम है। * मायाका वेदन करनेवाले उस जीवके भी नानापन नहीं है । ६२४८. यह सूत्र भी सुबोध है।
* मानका वेदन करनेवाले उसी जीवके तबतक नानापन है जबतक क्रोधका अपकर्षण नहीं करता है। क्रोधका अपकर्षण करनेपर क्रोधकी उदयादि गुणश्रेणि नहीं होती। यह मानका ही वेदन करता रहता है।
६२४९. क्रोधकी उदयादि गुणश्रेणि नहीं होती यह एक नानापन है तथा मानका ही वेदन करता है यह दूसरा नानापन है। इस प्रकार ये दो नानापन यहाँ जानने चाहिये।
विशेषार्थ-यह मानकषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है, इसलिये उतरते समय तक इसके क्रमसे लोभ, माया और मानका उदय होता है, क्रोधका उदय नहीं होता, इसलिए इसके एक तो क्रोधका अपकर्षण करनेके कालमें भी क्रोधको उदयादि गुणश्रेणि नहीं होती एक नानापन तो यह है
१. ता प्रतौ कोहे ओकड्डिदे इत्यतः चेव वेदिज्जदि इति यावत् टीकायां सम्मिलतः ।