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________________ १०९ उवसमसेढीए पुरिसवेदयस्स माणेण उवद्विदस्स परूवणा * पुरिसवेदयस्स माणेण उबट्ठिदस्स उवसामगस्स अधापवत्तकरणमादिं काढूण जाव चरिमसमयपुरिसवेदो त्ति णत्थि णाणत्तं । $ २४३. किं कारणमेत्थ णाणत्ताभावे च १ वुच्चदे - पुव्वविहाणेणेव अधापवत्तापुव्वकरणाणि बोलाविय तदो अणियट्टिकरणद्धाए संखेज्जेसु भागेसु तेणेव कमेणाइक्कंतेसु तहा चेवंतरं समाणिय णव सयवेदादिकमेण णोकसाये उवसामेदिति तेण कारेणेण एदम्हि विसये णत्थि किंचि णाणत्तमिदि भणिदं । * पढमसमयअवेदगप्पहुडि जाव कोहस्स उवसामणद्धा ताव णाणत्तं । $ २४४. एवं भणिदे, माणं वेदेंतो कोहमुवसामेदिति एदमेत्थ णाणतं दट्ठव्वं । कोहस्स पढमहिदी णत्थि त्ति एदं च णाणचमेत्थाणुगंतव्वं । * माणमायालो भाणमुवसामणद्धाए णत्थि णाणत्तं । $ २४५· किं कारणं १ सव्विस्से चैव परूवणाए णाणत्तेण विणा पवृत्तीए तत्थ परिप्फुडमुवलंभादो । * मानके साथ श्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेदी उपशामक के अधः प्रवृत्तकरणसे. लेकर पुरुषवेदके अन्तिम समय तक नानापन नहीं है । $ २४३. शंका – यहाँ नानात्वके अभावका क्या कारण है ? समाधान — कहते हैं, पहलेकी विधिके अनुसार ही अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको बिताकर पश्चात् अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागके उसी क्रमसे व्यतीत होनेपर तथा उसी प्रकार अन्तरकरण क्रियाको सम्पन्न करके नपुंसकवेद आदिके क्रमसे नोकषायोंको उपशमाता है इस कारण से इस विषय में कुछ भी नानापन नहीं है ऐसा सूत्रमें कहा है । विशेषार्थ - जैसे क्रोधसंज्वलन के उदयके साथ पुरुषवेदीके उपशमश्र णिपर चढ़नेपर नोकषायोंकी उपशामना जिस क्रमसे होती है, मानसंज्वलनके उदयके साथ पुरुषवेदीके उपशमश्रेणिपर चढ़नेपर नोकषायों की उपशामना भी उसी क्रमसे होती है, इसलिए दोनोंकी यहाँ तककी प्ररूपणामें कोई अन्तर नहीं है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । * अवेदक के प्रथम समय से लेकर जबतक क्रोधका उपशामना काल है तबतक नानापन है । $ २४४. ऐसा कहनेपर मानका वेदन करता हुआ क्रोधको उपशमाता है यह यहाँ नानापन जानना चाहिये और क्रोध की प्रथम स्थिति नहीं होती यहाँ यह नानापन भी जानना चाहिये । विशेषार्थं - पहला क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा था यह मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है एक अन्तर तो यह है और जो मानके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसके क्रोध अनुदयप्रकृति होनेसे उसकी प्रथम स्थिति नहीं होती यह दूसरा अन्तर है । * इसके मान, माया और लोभके उपशामना कालमें कोई नानापन नहीं है । $ २४५. क्योंकि पूरी प्ररूपणामें नानापनके बिना वहाँ प्रवृत्ति स्पष्टरूपसे पाई जाती है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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