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________________ उवसमसेढीए मायाए उवट्ठिदस्स परूवणा १११ * एदाणि दोणि णाणत्ताणि कोधादों ओकडिदादो पाये जाव अधापवत्तसंजदो जादो त्ति । ___२५०. माणोदएण चडिय पुणो हेट्ठा ओदरिय जाव अधापवत्तसंजदो ण जादो ताव माणोदओ ण णस्सदि ति । तदो एदम्हि अवत्थाविसेसे णाणत्तमेदमणंतरणिद्दिटुं दट्ठव्वं इदि वृत्तं होदि । एवं ताव वियाससमासेहिं णाणत्तमेदं फुडीकरिय संपहि मायाए उवडिदस्स उवसामगस्स णाणत्तपरूवणमुत्तरं सुत्तपबंधमाढवेइ. * मायाए उवट्ठिदस्स उवसामगस्स के ही मायाए पढमहिदी। ६२५१. सुगमं । * जाओ कोहेण उवट्ठिदस्स कोधस्स च माणस्स च मायाए च' पढमहिदीओ ताओ तिणि पढमद्विदीओ संपिंडिदानो मायाए उवट्ठिदस्स मायाए पढमहिदी। ६२५२. अंतरकदमेत्ते चेव मायाए पढमहिदिमेसो दुवेदि । तिस्से पढमद्विदीए आयामो केद्दिहि ति पुच्छिदे कोहेणोवद्विदस्स कोहमाणमायाणं जाओ पढमद्विदीओ और दूसरे यह अन्तमें मानके वेदनकालसे लेकर उसीका वेदन करता हुआ ही श्रेणिसे उतरता है, श्रेणिमें इसके क्रोधका वेदन नहीं होता। इस प्रकार दूसरा नानापन यह है। ___ * क्रोधके अपकर्षणसे लेकर अधःप्रवृत्त संयत होनेतक संयतके ये दोनों नानापन होते हैं। २५०. मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़कर पुनः नीचे उतरकर जबतक अधःप्रवृत्त संयत नहीं हो जाता तबतक मानका उदय नष्ट नहीं होता, इसलिये इस अवस्थाविशेषमें यह अनन्तर कहा गया नानापन जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विस्तार और संक्षेपसे इस नानापनको स्पष्ट करके अब मायाके साथ श्रेणिपर चढ़े हुए उपशामकके नानापनके निरूपण करनेके लिए इस सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं ___ * मायासे श्रेणिपर चढ़े हुए उपशामकके मायाकी प्रथम स्थिति कितनी आयामवाली होती है। ६ २५१. यह सूत्र सुगम है। * क्रोधसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीबके क्रोध, मान और मायाकी जितनी प्रथम स्थिति होती है उन तीनों प्रथम स्थितियोंको मिलाकर मायासे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके मायाकी प्रथम स्थिति होती है। 5 २५२. यह अन्तर किये जानेके बराबर मायाकी प्रथम स्थिति स्थापित करता है। उस प्रथम स्थितिका आयाम कितने प्रमाणवाला होता है ऐसा पूछनेपर क्रोधसे श्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके १. क०प्रतौ कोधस्स च चढमाणस्स च मायाए इति पाठः । २. ताप्रती अंताकद इत्यतः पढमट्ठिदी इति यावत् सूत्ररूपेण समुपलभ्यते ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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