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________________ उवसमसेढी माणेण उवट्ठिदस्स परूवणा १०७ $ २४०. कोहेण उबट्ठिदस्स उवसामगस्स परूवणादो माणेणोवदिस्स उवसामगस्स चडमाणोदरमाणावत्थासु एदमणंतरणिद्दिहं णाणत्तमवहारेयन्वमिदि वृत्तं होइ । एदं च णाणतं वित्थररुचिसोदारजणाणुग्गहढं वित्थरेण परूविदं । संपहि एवं चैव संखेवरुचिजणाणुग्गहङ्कं समासेण वत्तहस्सामो ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ* एवं ताव वियासेण णाणत्तं एत्तो समासणाणत्तं वत्तइस्लामो । $ २४१. वियासेण वित्थारेण णाणत्तमेदं परूविदमेहि एदं चैव संगहियूण थोवक्खरेहिं चैव जाणावइस्सामो त्ति भणिदं होइ । नानापन है । $ २४०. क्रोधसे चढ़े हुए उपशाममकी प्ररूपणाकी अपेक्षा मानसे चढ़े हुए उपशामक की चढ़ने-उतरनेरूप अवस्थाओंमें यह अनन्तर कहा गया नानापन जानना चाहिये । और इस नानानपको विस्तार रुचिवाले श्रोताजनोंके अनुग्रहके लिए विस्तारसे कहा है । अब संक्षेपरुचिवाले श्रोताओंके अनुग्रहके लिए उसीको संक्षेपसे बतलावेंगे इसका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * पहले यह नानापन विस्तारसे कहा, अब संक्षेपमें इस नानापनको बतलावेंगे । $ २४१. 'वियासेण' अर्थात् विस्तारसे इस नानापनकी प्ररूपणा की अब इसीका संग्रह करके थोड़े अक्षरों द्वारा ही ज्ञान करायेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - नियम यह है कि जो क्रोध कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके क्रमसे चारों कषायों का उदय होता है। उसके चढ़ते समय क्रोध, मान, माया और लोभ इस क्रमसे कषायों का उदय होता है । किन्तु उतरते समय यह क्रम बदलकर लोभ, माया, मान और क्रोध इस क्रमसे उदय होता है । इसलिए अप्रमत्तसंयतसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतकका काल पाँच भागोंमें बट जाता है । उसमें भी अपूर्वकरण गुणस्थान तक चारित्रमोहनीयके किसी भी कर्मकी उपशामना नहीं होती, इसलिए यह यहाँ विवक्षित नहीं है । अब शेष रहा अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायका काल सो उसमें भी सूक्ष्मसाम्परायका काल तो मात्र सूक्ष्मलोभका है । किसी भी कषायके उदयसे जीव श्रेणिपर चढ़े उसके सूक्ष्मसाम्परायमें एकमात्र सूक्ष्म लोभका ही उदय रहता है । किन्तु अनिवृत्तिकरणके कालके चार भाग हो जाते हैं— क्रोधका काल, मानका काल, मायाका काल और बादर लोभका काल । अब क्रोधके उदयसे जो श्रेणिपर चढ़ता है। उसका मात्र क्रोध के कालतक ही उदय रहता है और इस कालके भीतर वह नौ नोकषायों और अप्रत्याख्यानावरण आदि तीन क्रोधोंको उपशमाता है । इसके बाद उसके मानका वेदनकाल प्राम्भ हो जाता है जिसके भीतर वह तीन प्रकारके मानको उपशमाता है । इसके बाद उसके मायाका वेदनकाल प्रारम्भ हो जाता है जिसके भीतर वह तीन प्रकारकी मायाको उपशमाता चौथा बादर लोभका वेदनकाल है । इसके भीतर वह अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दो लोभोंके साथ बादर संज्वलन लोभको भी उपशमाता है । जो क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसकी अपेक्षा यह व्यवस्था है । अब मानकी अपेक्षासे श्र ेणिपर चढ़नेवालेकी अपेक्षासे विचार करनेपर उक्त कालके तीन भाग हो जाते हैं । तथा मायाकी अपेक्षा विचार करनेपर उक्त कालके दो भाग होते हैं । और लोभकी अपेक्षा विचार करनेपर पूरा काल एकमात्र लोभ के वेदना होता :
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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