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________________ उवसमसेढीए माणेण उवट्ठिदस्स परूवणा १०३ $ २३१. पुचिल्लो अंतरं करेमाणो कोहसंजलणस्स पढमहिदिमंतोमुहुत्तियं दुवेदि । एदस्स पुण कोहस्स पढमद्विदी पत्थि, अवेदिज्जमाणस्स तस्स पढमट्ठिदिसंबंधाभावादो । तदो अंतरकदमेत्ते चेव माणस्स पढमहिदि एसो हवेदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि एदस्स माणपढमहिदी किंपमाणा ति जादारेयस्स सिस्सस्स तप्पमाणावहारणमुत्तरसुत्तमोइण्णं_जद्द ही कोहेण उवट्टिदस्स कोधस्स च माणस्स च पढमट्ठिदी तह ही माणेण उवट्टिदस्स माणस्स पढमहिदी । २३२. किं पुण कारणमेम्महंती माणपढमहिदी एदस्स जादा ति णासंकणिज्ज, एत्तियमेत्तपढमद्विदीए विणा णवणोकसायतिविहकोहतिविहमाणाणमवसामणकिरियाये तत्थ समाणाणुववत्तीदो । तदो माणेण उवद्विदस्स उवसामगस्स माणपढमहिदी कोहेणोबट्ठिदस्स कोहमाणाणं पढमहिदी सपिंडिदा जद्देही तद्देही चेव होदि त्ति घेत्तव्वं । *माणे उवसंते एत्तो सेसस्स उवसामेयवस्स मायाए लोभस्स च जो कोहेण उवहिवस्स उवसामणविधी सो चेव कायव्यो । ६२३१. पहलेका जीव अन्तरको करता हुआ क्रोधसंज्वलनकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थिति करता है। परन्तु इसके क्रोधको प्रथम स्थिति नहीं होती, क्योंकि यह क्रोधसंज्वलनका वेदन नहीं करता, इसलिए इसके क्रोधकी प्रथम स्थितिके सम्बन्धका अभाव है, इसलिए किये गये अन्तरके प्रमाणके अनुसार ही यह जीव मानकी प्रथम स्थितिको स्थापित करता है। अब इस जीवके मानकी प्रथम स्थिति कितने प्रमाणवाली होती है ऐसे शंकाशील शिष्यको उसके प्रमाणका निश्चय करानेके लिये आगेका सूत्र आया है __* क्रोधसे चढ़े हुए जीवके क्रोध और मानकी जितने आयामवाली प्रथम स्थिति होती है उतने आयामवाली मानसे चढ़े हुए जीवके मानकी प्रथम स्थिति होती है। $ २३२. शंका-इस जीवके मानकी प्रथम स्थिति इतनी बड़ी हो गई इसका क्या कारण है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इतनी बड़ी प्रथम स्थिति हुए बिना नौ नोकषाय, तीन प्रकारके क्रोध और तीन प्रकारके मानकी उपशामनाके लिए प्रथम स्थिति और उपशामनाक्रिया इन दोनोंकी समानता नहीं बन सकती। इसलिए मानसे चढ़े हुए उपशामकके मानकी प्रथम स्थिति, क्रोधसे चढ़े हुए उपशामकके क्रोध और मानकी प्रथम स्थितिको मिलाकर जितना प्रमाण होता है, उतनी होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ___ * मानके उपशान्त होनेपर आगे उपशमने योग्य माया और लोमकी उपशामना करनेवाले इस जीवके, क्रोधसे चढ़े हुए जीवके उक्त प्रकृतियोंकी जो उपशामनाविधि है, वही करनी चाहिये।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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