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________________ १०४ जवधवलासहिदे कसायपाहुडे २३३. माणेण उवविदस्स माणे उवसंते जादे एत्तो उवरि सेसस्स उवसामेयवस्स मायालोभविसयस्स च सो चेव विधी एदस्स माणेण उवद्विदस्स कायव्वो जो कोहेण उवविदस्स उवसामगस्स पुव्वुत्तो उवसामणविहि ति मणिदं होदि । एवं चडमाणस्स णाणत्तगवेसणं कादण संपहि एदस्सेव ओदरमाणावत्थाए जो विसेससंभवो तप्पदुप्पायणट्ठमुवरिमो सुत्तणिबंधो * माणेण उवढिदो उवसामेयूण तदा पडिवदिदूण लोभं वेदयमाणस्स जो पुवपरूविदो विधी सो चेव विधी कायव्यो । एवं मायं वेदेमाणस्स। $ २३४. माणेण उवविदो उबसामेयण उवसंतकसायगुणट्ठाणे अंतोमुडुत्तमच्छियण परिवदमाणगो जाव लोभं वेदयदि किट्टीगदं फड़यगदं च जाव य मायं वेदयदि अप्पप्पणो उद्देसे ताव णत्यि किचि णाणचं, तहा चेय उदयादिगुणसेढिणिक्खेवेण पुव्वुत्तावद्विदायामेण तदुमयमप्पणो वेदगकाले पुन्वं व वेदेदि ति एसो एदस्स मावत्यो। * तदो माणं वेदयंतस्स गाणत्तं । 5 २३५. सुगमं । $२३३. मानसे चढ़े हुए जीवके मानके उपशान्त हो जानेपर 'एत्तो' अर्थात् उसके आगे शेष माया और लोभकी उपशामना करनेवाले मानसे चढ़े हुए इस जीवके वही विधि करनी चाहिये जो क्रोधसे चढ़े हुए उपशामकके पहले उपशामनाविधि कह आये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार चढ़नेवालेके नानापनेकी गवेषणा करके अब इसीके उतरनेकी अवस्थामें विशेष सम्भव है उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रनिबन्ध आया है * मानसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके, चारित्रमोहनीयको उपशमा कर और वहांसे गिरकर लोभका वेदन करते हुए जो पहले विधि कह आये हैं वही विधि करनी चाहिये । इसी प्रकार मायाका वेदन करनेवाले बीवके जानना चाहिये। $ २३४. मान कषायके साथ श्रेणिपर चढ़कर, कषायोंको उपशमा कर और उपशान्तकषाय गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त रहकर गिरता हुआ यह जीव जबतक लोभका वेदन करता है तथा कृष्टिगत और स्पर्धकगत मायाका जबतक वेदन करता है तबतक अपने-अपने स्थानमें नानापन नहीं है तथा उदयादि गणश्रेणिनिक्षेप और पूर्वोक्त अवस्थित आयामके साथ उन दोनोंका अपनेअपने वेदन करनेके कालमें पहलेके समान वेदन करता है यह सूत्रका भावार्थ है। * इसके बाद मानका वेदन करनेवाले जीवकी प्ररूपणामें नानापन अर्थात् कुछ भेद है। ६ २३५. यह सूत्र सुगम है। २. ता प्रतौ भाषण उवदिस्स माणे उवसंते जादे इत्ययं पाठः सूत्रांशरूपेण निर्दिष्टः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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