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________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एदम्मि अंते कोहोदयेणोवडिदउवसामगपरूवणादो माणोदयोवसामगस्स पत्थि थोवं पि परूवणाणाणत्तं, तत्थ तदणुवलंभादो त्ति भणिदं होदि । संपहि एत्तो उवरि कोहसंजलणमुवसामेमाणस्स किंचि णाणत्तमत्थि त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * उवरि माणं वेदंतो कोहमुवसामेदि । २२८. पुविल्लो उवसामगो कोहसंजलणमणुहवंतो तिविहं कोहमुवसामेदि, एसो वुण माणोदएण चडिदत्तादो माणं वदेतो तिविहं कोहं उवसामेदि ति एवं णाणत्तमेत्थ दट्ठन्वं । $ २२९. संपहि दोण्हं पि उवसामगाणं कोहोवसामणद्धा सरिसी चेव होदि ण तत्थ किंचि णाणत्तमत्थि त्ति जाणावणफलमुत्तरसुतं * जद्द ही कोहेण उवढिदस्स कोहस्स उवसामणद्धा तहही चेव माणेण वि उवट्ठिदस्स कोहस्स उवसामणद्धा । $ २३०. सुगमं । संपहि पढमद्विदिविसयमेदेसि किंचि णाणत्तमत्थि ति पदुप्पायेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * कोधस्स पढमहिदी णत्थि । तबतक इस बीचमें क्रोधके उदयसे चढ़े हुए उपशामककी प्ररूपणासे मानके उदयसे चढ़े हुए उपशामकके थोड़ा भी प्ररूपणाभेद नहीं है, क्योंकि उस अवस्थामें वह पाया नहीं जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इससे आगे क्रोधसंज्वलनकी उपशामना करनेवालेकी अपेक्षा इसकी प्ररूपणामें कुछ भेद है इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * मानको वेदता हुआ यह जीव सात नोकषायोंकी उपशामनाके अनन्तर क्रोधको उपशमाता है। २२८. पहलेका उपशामक क्रोधसंज्वलनका अनुभव करता हुआ तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाता है, परन्तु यह जीव मानके उदयसे चढ़ा हुआ होनेके कारण मानका वेदन करता हुआ तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाता है यह विशेषार्थ-पहला क्रोधके उदयसे चढ़कर तीन क्रोधोंको उपशमाता था, यह मानके । उदयसे चढ़कर तीन क्रोधोंको उपशमाता है, यहाँ यह भेद है। ____६२२९. अब दोनों ही उपशामकोंके क्रोधके उपशमानेका काल समान होनेसे उसमें कुछ भेद नहीं है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * जितने प्रमाणवाला क्रोधसे चढ़े हुए जीवके क्रोधका उपशामना काल है उतने ही प्रमाणवाला मानसे चढ़े हुए जीवके भी क्रोधका उपशामना काल है। $ २३०. यह सूत्र सुगम है। अब इनकी प्रथम स्थितिके विषयमें कुछ भेद है इसका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * मानके उदयसे चढ़े हुए जीवके क्रोधकी प्रथम स्थिति नहीं होती।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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