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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णियत्तो अधापवत्तकरणेण उवसमसम्मत्तद्धमणपालेदि । २१८. एसो कसायउवसामणादो परिवदिदो उवसमसम्माइट्ठी वा होज्ज, खइयसमाइट्ठी वा, दोण्हं पि उवसमसेढिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो । तत्थ उवसमसम्माइट्ठिमहिकिच्च एत्तो उवरिमा परूवणा आढविज्जदे । तं जहा-एसो कसायउवसामणादो पडिणियत्तो हेट्ठा णिवदिय पुणो वि अंतोमुहुत्तकालमुवसमसम्मत्तद्धमघापवत्तसंजदो होदूण अणुपालेदि, एवमणुपालेमाणस्स जो उवसमसम्मत्तकालो सो चडमाणोवसामगस्स अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि जाव पडिवदमाणापुवकरणचरिमसमयो त्ति एदम्हादो चडमाणोदरमाणसव्वकालकलावादो संखेज्जगुणो होदि । कुदो एदमवगम्मदे १ एदम्हादो चेव सुत्तणिदेसादो । एवमेदेण सुत्तेण उवसमसम्मत्तद्धामाहप्पं जाणाविय पुणो वि एदिस्से अद्धाए अभंतरे वि संभवंतविसेसपदुप्पायण?मुवरिमं सुत्तपबंधमाह-- * एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अन्भंतरदो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेन, दो वि गच्छेन । $ २१९. एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा--एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरे संजमेणेव अच्छदि ति पत्थि णियमो, किंतु सिया असंजमं पि गच्छेज्ज, परिणामयह जीव अधःप्रवृत्तकरणके साथ उपशमसम्यक्त्वके कालको धारण करता है । ६२१७. कषायकी उपशामनासे गिरा हुआ यह जीव उपशमसम्यग्दृष्टि भी हो सकता है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, क्योंकि दोनोंके ही उपशमणिपर आरोहण करनेमें निषेधका अभाव है। उनमेंसे उपशमसम्यग्दृष्टिको अधिकृत कर इससे आगेकी प्ररूपणा आरम्भ की जाती है। वह जैसे-कषायकी उपशामनासे लौटा हुआ यह जीव नीचे गिरकर फिर भी अन्तर्मुसूर्त कालतक अधःप्रवृत्त संयत होकर उपशमसम्यक्त्वके कालको धारण करता है। इस प्रकार धारण करनेवाले इस अधःप्रवृत्तसंयतके उपशमसम्यक्त्वका जो काल है वह चढ़नेवाले उपशामकके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गिरनेवाले उसीके अपूर्वकरणके अन्तिम समयतक इस चढ़ने और उतरनेमें जितना काल लगता है उस पूरे कालसे संख्यातगुणा होता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रके उल्लेखसे जाना जाता है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा उपशमसम्यक्त्वके कालके माहात्म्यका ज्ञान कराकर फिर भी इस कालके भीतर ही जो विशेषताएँ सम्भव हैं उनका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * इस उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर वह असंयमको भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और दोनोंको भी प्राप्त हो सकता है । २१९. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-इस उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर संयमके साथ ही रहता है ऐसा नियम नहीं है। किन्तु कदाचित् असंयमको भी प्राप्त हो सकता
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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