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________________ पडिवदमाणउवसामगस्स परूवणा पच्चएण उवसमसम्मत्तसहिदासजमपज्जायपरिणमणे विरोहाभावादो। सिया संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, परिणामपच्चएणेव पच्चक्खाणोदयसंभवे उवसमसम्मत्तद्धाणुविद्धसंजमासंजमगुणग्गहणे विप्पडिसेहामावादो । सिया दो वि गच्छेज्ज, परिणामवइचित्तियादो संजमासंजममसंजमं च परिवाडीए परिणामेदुमेदिस्से अद्धाये संभवो अस्थि त्ति वुत्तं होइ । तदो पुन्वमसंजमं गंतूण तत्थंतोमुहुत्तमच्छिय पच्छा संजमासंजमेण परिणमेदुमेदस्स संभवो अत्थि । अथवा पुव्वं संजमासंजमं गंतूण तत्थंतोमुहुत्तमच्छिय तदो असंजमं पि पडिवज्जिदुमेदस्स संभवो ण विप्पडिसिद्धो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स मावत्थो । संपहि ण केवलमेदिस्से अद्धाये अन्भंतरे एसो चेवाणंतरपरूविदो असंजमसंजमासंजममावपरिवत्तो, किंतु अण्णो वि गुणंतरपरिणामो एत्थाविरुद्धो त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तावयारमुत्तरं मणइ-- * छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । $ २२० एसो एदमुवसमसम्मत्तगद्धावसेसं जहावुत्तेण णाएण संजमेणासंजमेण वा संजमासंजमेण वा अणुफालेमाणो एदिस्से अद्धाए बहुमागेसु झीणेसु अवसाणे एगसयमादि कादण जावुक्कस्सेण छआवलियाओ अत्थि त्ति एदम्हि अवत्थंतरे सिाय सासादणगुणं पि पडिवज्जेज्ज, परिणामपच्चएणाणताणुबंधिणो उदीरेमाणस्स तदवत्थाए तब्मावगमणे विप्पडिसेहामावादो । है, क्योंकि परिणामोंके निमित्तसे उपशमसम्यक्त्वके साथ असंयमपर्यायके प्राप्त होनेमें विरोधक अभाव है। कदाचित् संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है, क्योंकि परिणामोंके निमित्तसे ही प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेपर उपशमसम्यक्त्वके कालसे युक्त संयमासंयमगुणके ग्रहण करनेमें कोई निषेध नहीं है। कदाचित् दोनोंको भी प्राप्त हो सकता है, क्योंकि परिणामोंकी विचित्रतावश इस कालके भीतर इसे क्रमसे संयमासंयम और असंयमरूप परिणमाना सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिये पहले असंयमको प्राप्त कर वहाँ अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पीछे इसे संयमासंयमरूपसे परिणमाना सम्भव है। अथवा पहले संयमासंयमको प्राप्त कर और वहाँ अन्तर्मुहर्त कालतक रहकर पश्चात् इसे असंयमको भी प्राप्त कराना सम्भव है इसमें वा नहीं है यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब केवल इस कालके भीतर यह अनन्तर पूर्ण कही गई असंयम और संयमासंयमभावका परिवर्तन ही होता हो ऐसा नहीं है, किन्तु यहाँपर अन्य गुणान्तररूप परिणाम भी अविरुद्ध है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि काल शेष रहनेपर वह सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त कर सकता है। $२२०. उपशमसम्यक्त्वके इस अवशेष कालका यथोक्त न्यायसे संयमके साथ, असंयमके साथ अथवा संयमासंयमके साथ पालन करता हुआ यह जीव इस कालके बहुभाग क्षीण हो जानेपर अन्तमें एक समयसे लेकर उत्कृष्ट छह आवलिप्रमाण काल शेष है कि इस अवस्थाके भीतर कदाचित् सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि परिणामोंके निमित्तसे अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवालेके उस अवस्थामें उस भावके प्राप्त करनेमें कोई बाधा नहीं है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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