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________________ उवसमसेढीदो ओदरमाणस्स परूवणा ९ २०९. ओदरमाणापुव्वकरणद्धाए सत्तमभागमेत्तमोइण्णस्स परभवियणामाणं देवगदिपंचिंदियजादिआदीणं परिणामविसेसमस्सियूण बंधपारंभो जादों त्ति भणिदं हो । * तदो द्विदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जेसु भागे गदेसु णिद्दापयलाओ बंधइ । ९३ $ २१०. ओदरमाणापुव्वकरणपढमसत्तमभागच रिमसमए परभवियणामाणं बंधे जादे तत्तो उवरि पुणो वि पंचसत्तममागे गमिय छदुसत्तमभाग चरिमसमए दोहमेदासिं पडीणं बंधपारंभो जादो त सुत्तत्थसंगहो । * तदो संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो । $ २११. णिद्दापयलाणं बंधपारं मे जादे तत्तो उवरि पुणो वि संखेज्जसहस्समेडिदिबंधगन्भे चरिमसत्तमभागे समइक्कंते चरिमसमयापुव्वकरणभावमेसो संपत्तो त सुत्धो । ताघे पुण ट्ठिदिबंधपमाणमंतोकोडाकोडीए सागरोवमकोडिसदसहस्स पुधत्तं, द्विदिबंधप्पाबहुअं च पुव्वं व दट्ठव्वं । सव्वस्सेव ओदरमाणयस्स णत्थि दिघादो अणुभागषादो वा । गुणसेडी पुण गलिद सेसाया मेण पडिसमयमसंखेज्जगुणहाणी अक्कतविसये सव्वत्थ पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । $ २०९. उतरनेवाले अपूर्वकरणके कालमें सातवाँ भागमात्र उतरे हुए जीवके परभवसम्बन्धी देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति आदि नामकर्मकी प्रकृतियों के परिणामविशेषका आलम्बन करके बन्धका प्रारम्भ हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके व्यतीत होने के साथ अपूर्णकरणके कालके संख्यात बहुभागप्रमाण कालके बीतनेपर निद्रा और प्रचलाका बन्ध प्रारम्भ करता है । $ २१०. उतरनेवाले अपूर्वकरणके प्रथम सातवे भागके अन्तिम समयमें परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्ध होने लगनेपर पश्चात् फिर भी पाँच बटे सात भागको बिताकर छठवें भाग अन्तिम समयमें इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ हो जाता है यह इस सूत्रका समुच्चयार्थ है । * तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके बीतनेपर अपूर्वकरणके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । $ २११. निद्रा, प्रचलाका बन्ध प्रारम्भ हो जानेपर वहाँसे आगे फिर भी संख्यात हजार स्थितिबन्धगर्भत अन्तिम सातवें भागके बीत जानेपर यह जीव अपूर्वकरणके अन्तिम समयको प्राप्त होता है यह इस सूत्रका अर्थ है । उस समय स्थितिबन्धका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमके भीतर कोटिलक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है । तथा स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व पहले के समान जानना चाहिये। सभी उतरनेवाले जीवोंके स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता है । परन्तु व्यतीत हुए स्थानमें गलितशेष आयामरूपसे गुणश्रेणि प्रत्येक समयमें असंख्यात -
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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