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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * से काले पढमसमयअधापवत्तो जादो । $ २१२. तदणंतरसमए अणंतगुणहीणविसोहिपडिलंमेण अप्पमत्तगुणवाणमोइण्णो, पढमसमयअधापवत्तसंजदो जादो त्ति भणिदं होइ । एवमधापवत्तकरणविसयमोइण्णस्स गुणसेढिणिक्खेवो केरिसो त्ति जादारेयस्स सिस्सस्स तण्णिण्णयविहाणमुत्तरसुत्तमोइण्णं * तदो पढमसमयअधापवत्तस्स अण्णो गुणसेदिणिक्खेवो पोराणगादो णिक्खेवादो संखेनगुणो । $ २१३. चरिमसमयापुवकरणेण ओवडिपदेसग्गादो असंखेज्जगुणहीणं पदेसग्गमोकड्डियण अधापवत्तसंजदगुणसेढिमेसो करेमाणो जो पढमसमयसुहुमसांपराइयेण णाणावरणादिकम्माणमपुव्वाणियट्टिअद्धाहिंतो विसेसाहियायामेण णिक्खित्तो गुणसेढिणिक्खेवो पोराणिओ। तत्तो संखेज्जगुणायामेण गुणसेढिविण्णासमेसो करेदि चि वुत्तं होइ । कुदो एवं चे ? मंदयरविसोहीहिं सव्वत्थ गुणसेढिआयामस्स विसप्पणभुवगमादो । संपहि अवहिदायामो एसो एदस्स गुणसेढिविण्णासो ति पदुप्पाएमाणो गुणी हानिरूपसे सर्वत्र प्रवृत्त रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। * तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण संयत हो जाता है । ६२१२. तदनन्तर समयमें अनन्तगुणी हीन विशुद्धिके होनेसे अप्रमत्त गुणस्थानमें उतरकर प्रथम समयवर्ती अधप्रवृत्त संयत हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण गुणस्थानमें अवतीर्ण हुए इस जीवके गुणश्रेणिनिक्षेप किस प्रकारका होता है इस प्रकारकी जिसे शंका उत्पन्न हुई ऐसे शिष्यके प्रति उसका निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है तब अधःप्रवृत्त संयतके प्रथम समयमें पुराने गुणश्रेणिनिक्षेपसे संख्यातगुणा बड़ा अन्य गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। $ २१३. अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा उसके अन्तिम समयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशपुंजसे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेणिको करता हुआ यह जीव, प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीवने ज्ञानावरणादि कर्मोंका अपूर्ण-अनिवृत्ति कालसे विशेष अधिक आयामवाले जो पुराने गुणोणिनिक्षेपकी रचना की थी, उससे संख्यातगुणे आयामवाले गुणश्रेणिको रचना यह करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-ऐसा किस कारणसे करता है ? समाधान-क्योंकि मन्दतर विशुद्धिके कारण सर्वत्र गुणश्रेणिआयाम उत्तरोत्तर बड़ा स्वीकार किया गया है। अब इस जीवके यह गुणश्रेणिनिक्षेप अवस्थित आयामवाला होता है इस बातका कथन
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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