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________________ उवसमसेढीदो ओदरमाणस्स परूवणा पुणो तत्थ पलिदो० संखे०भागमेत्तहेट्ठिमद्विदिबंधायामे सोहिदे सुद्धसेसं देसूणद्धपलिदोवममेत्तं तत्कालियट्ठिदिबंधवुड्डिपमाणं णामागोदाणं होदि ति सिस्साणमत्थबोहो कायन्यो। ___ * जाधे एसा परिवड्डी ताधे मोहणीयस्स जहिदिगो बंधो पलिदोवमं, चदुण्हं कम्माणं जहिदिगो बंधो पलिदोवमं चदुण्हं भागूणं, णामागोदाणं जहिदिगो बंधो अद्धपलिदोवमं! ६ १९८. पुन्वं वड्ढीए चेव सुद्धाये पमाणावहारणं कदं, एदेण पुण सवड्ढिमूलस्स जट्ठिदिबंधस्स तक्कालभावियस्स पमाणपडिच्छेदो कओ ति दट्ठव्वं । सुगममण्णं । $ १९९. संपहि एत्तो उवरि सव्वत्थेव सञ्चकम्माणं द्विदिबंधपरिवड्ढी पलिदो० संखे०भागपमाणा चेव दट्ठन्वा । त्थि पयदंतरसंभवो त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ * एत्तो पाये ठिदिषंधे पुण्णे पुण्णे पलिदोवमस्स संखेजविभागण वड्ढइ जत्तिया अणियहिअद्धा सेसा अपुव्वकरणद्धा सव्वा च तत्तियं । लाकर पुनः उसमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन स्थितिबन्धके प्रमाणको घटानेपर नाम और गोत्रकर्मके उस कालमें होनेवाले शुद्ध शेष कुछ कम अर्ध पल्योपममात्र स्थितिबन्धकी वृद्धिका प्रमाण होता है । इस प्रकार शिष्योंको अर्थका बोध कराना चाहिये। ___ * जिस समय यह वृद्धि हुई है उस समय मोहनीय कर्मका यस्थितिबन्ध पल्योपमप्रमाण होता है, चार कर्मोंका यत्स्थितिबन्ध चौथा भाग कम पन्योपमप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रकर्मका यत्स्थितिबन्ध अर्ध पल्योपमप्रमाण होता है।। $ १९८. पहले शुद्ध वृद्धिके प्रमाणका ही अवधारण किया था, परन्तु इस सूत्र द्वारा तत्कालभावी वृद्धि और मूल सहित यत्स्थितिबन्धके प्रमाणका परिच्छेद किया गया है ऐसा जानना चाहिये । अन्य सब कथन सुगम है। विशेषार्थ-इसके पहले ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरनेवाले जीवके एक स्थितिबन्धके बाद दूसरे स्थितिबन्धके प्रारम्भ होनेपर उसमें कितनी वृद्धि हुई है मात्र इसका निर्देश किया गया है। किन्तु विवक्षित सूत्र में मूल और वृद्धि दोनोंको मिलाकर स्थितिबन्धके पूरे प्रमाणका निर्देश किया गया है। प्रकृतमें यत्स्थितिबन्धका यही तात्पर्य है। इसमें आबाधाकाल भी सम्मिलित है। $ १९९. अब इससे आगे सभी जगह स्थितिबन्धकी वृद्धि पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण ही जाननी चाहिये, प्रकृत वृद्धि में अन्तर सम्भव नहीं है इसका ज्ञान करानेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * इससे आगे जितना अनिवृत्तिकरणका काल शेष है और अपूर्वकरणके पूरे १. ता०प्रतौ जत्तिया इत्यतः तत्तियं यावत् टीकायां सम्मिलितः । १२
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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