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________________ उवसामणाक्सएप पडिवदमाणपख्वणा पलिदो० संखे०भागियाणं संखेज्जाणं द्विदिबंधसहस्साणं अपुव्वा द्विदिबंधवुड्ढी पलिदो० संखे०भागपमाणा चेव ददुव्वा, पलिदो० संखे०भागियढिदिबंधविसौ पयारंतरसंभवाणुवलंभादो त्ति एसो एत्य सुत्तत्थणिच्छओ। ___ * तदो मोहणीयस्स जाधे अण्णस्स हिदिबंधस्स अपुव्वा वड्ढी पलिदोवमस्स संखेन्जा भागा। १९४. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-तदो सव्वपच्छिमादो पलिदो०संखे०भागियादो द्विदिबंधादो संखेज्जगुणवड्ढीए वड्ढमाणस्स जाधे जम्हि काले मोहणीयस्स हिदिबंधो संपुण्णपलिदोवममेत्तो जादो ताघे तस्स द्विदिबंधस्स पुन्वहिदिबंधं पेक्खियण अपुव्वा वड्ढी पलिदो० संखेज्जा भागा ति दट्ठन्वा । किं कारणं ? अण्णहा पलिदोवमेततक्कालभाविहिदिबंधपमाणाणुप्पत्तीदो। संपहि तक्काले णाणावरणादीणं चदुण्हं कम्माणं द्विदिबंधबुड्ढी किंपमाणा ति जादारेगस्स सिस्सस्स तप्पमाणावहारण?मुत्तरसुत्तमाह____ * ताधे चदुण्हं कम्माणं ठिदिबंधस्स वड्ढी पलिदोवमं चदुम्भागण सादिरेगेण ऊणयं । १९५. तक्काले चदुण्हं कम्माणं णाणावरणदंसणावरणवेदणीयंतराइयाणं कर्मोके पल्योपमके संख्यातवें भागसे युक्त संख्यात हजार स्थितिबन्धोंकी स्थितिबन्धसम्बन्धी अपूर्व वृद्धि पल्योपमो संख्यातवें भागप्रमाण ही जानना चाहिये, क्योंकि पल्योपमके संख्यातवें भागवाले स्थितिबन्धके विषयमें प्रकारान्तरकी सम्भावना नहीं उपलब्ध होती यह यहां इस सूत्रका निश्चित अभिप्राय है। * तत्पश्चात् जब मोहनीयकर्मके अन्य स्थितिबन्धकी अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यात बहुभागप्रमाण उपलब्ध होती है। १९४. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-तत्पश्चात् सबसे अन्तिम पल्योपमके संख्यातवें भागवाले स्थितिबन्धसे संख्यात गुणवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए मोहनीय कर्मका 'जाधे' जिस कालम स्थितिबन्ध पूरा पल्योपमप्रमाण हो जाता है 'ताधे उस समय उस स्थितिबन्धके पूर्व स्थितिबन्धको देखते हुए अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यात बहुभागप्रमाण जाननी चाहिये, क्योंकि अन्यथा तत्काल होनेवाले पल्योपममात्र स्थितिबन्धका प्रमाण नहीं बन सकता। अब उस समय ज्ञानावरणादि चार कर्मोके स्थितिबन्धकी वृद्धि किस प्रमाणमें होती है ऐसी शंका करनेवाले शिष्यको उसके प्रमाणका अवधारण करानेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * उस समय चार कर्मोंके स्थितिबन्धकी वृद्धि साधिक चौथे मागसे ऊन पल्योपमप्रमाण होती है।। ६ १९५. उस समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोके
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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