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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे माहप्पेणेत्थ तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो। तदो एत्थ वि पुन्वुत्तो चेव अप्पाबहुअपबंधो णिव्वामोहमणुगंतव्यो। ६ १९१. संपहि एत्तो पुव्वं सव्वत्थेवासंखेज्जवस्सियट्ठिदिबंधविसये असंखेज्जगुणवड्डीए पयट्टमाणो हिदिबंधो इदो प्पहुडि सव्वेसि कम्माणं संखेज्जगुणवड्डीए पयदि त्ति जाणावणट्टमुत्तरसुत्तणिद्देसो * एत्तो पाये पुण्णे पुण्णे ठिदिबंधे अण्णं द्विदिवंधं संखेनगुणं बंधइ । ६ १९२. कुदो ? पलिदो० संखे०भागमेतद्विदिबंधविसये संखेज्जगुणवडिं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । संपहि एवमेदम्मि विसये संखेज्जगुणवड्ढीए वड्ढमाणस्स द्विदिबंधवुड्ढिपमाणावहारणमुवरिमसुत्तारंभी * एवं संखेज्जाणं हिदिबंधसहस्साणमपुव्वा वड्ढी पलिदोवमस्स संखेजदिभागो। 5 १९३. एवमेदेण कमेण संखे०गुणवड्ढीए वड्ढमाणस्स सव्वेसिं कम्माणं जीवके एक बारमें ही कैसे सम्भव है ? । समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि गिरनेके माहात्म्यवश यहांपर उस प्रकारसे सिद्धि होनेमें कोई विरोध नहीं आता। इसलिये यहाँपर भी पूर्वोक्त ही अल्पबहुत्व प्रबन्ध बिना व्यामोहके जानना चाहिये। विशेषार्थ-उपशमश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवोंके सातों कर्मोके स्थितिबन्धमें इस जातिकी विषमता बनी रहती है जिससे वहाँ सब कर्मोंका दूरापकृष्टिविषयक स्थितिबन्ध एक ही स्थानपर नहीं प्राप्त होता। किन्तु यहाँपर गिरनेरूप परिणामोंके माहात्म्यवश वह बन जाता है यह इस सूत्रका आशय है। 5 १९१.अब इससे पूर्व सर्वत्र ही असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धमें असंख्यात गुणवृद्धिरूपसे प्रवृत्त होता हुआ स्थितिबन्ध यहाँसे लेकर सभी कर्मोंका संख्यात गुणवृद्धिरूपसे प्रवृत्त होता है यह जाननेके लिये आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं * यहांसे लेकर स्थितिवन्धके पुनः पुनः पूर्ण होनेपर संख्यातगुणे अन्य प्रमाण स्थितिबन्धको बांधता है। १९२. क्योंकि पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्धके होनेपर संख्यात गुणवृद्धिको छोड़कर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। अब इस प्रकार इस विषयमें संख्यात गुणवृद्धिको प्राप्त होनेवालेके स्थितिबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * इस प्रकार संख्यात हजार स्थितिबन्धोंकी अपूर्व वृद्धि पन्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होती है। $ १९३. इस प्रकार इस क्रमसे संख्यात गुणवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके सभी
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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