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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो उवसामगस्स एक्कसराहेण असंखेज्जगुणहाणीए हेट्ठा णिवदिदो तमुद्देसमपत्तस्सेव ओदरमाणयस्स एवंविहो द्विदिबंधपरिवत्तो जादो त्ति एसो एदस्स मावत्थो । जइ एवं विसेसाहियवढि मोत्तूण असंखेज्जगुणवड्डीए एसो परियत्तो किण्ण जादो त्ति णासंकियव्वं, ओदरमाणयस्स सव्वो द्विदिबंधपन्लट्टो विसेसाहियवड्ढीए चेव पयदि ति णियमदंसणादो। ण एस णियमो णिण्णिबंधणो, एबं चेव सुत्तं णिबंधणीकरिय पयवृत्तादो। एवमेदेण कमेण पुणो वि संखेज्जसहस्समेत्ताणि द्विदिबंधभुस्सरणाणि कादण हेट्ठा ओदरमाणस्स अंतोमुहुत्तकाले वोलीणे तदो अण्णारिसो द्विदिबंधप्पाबहुअकमो संवुत्तो ति जाणावणफलो उत्तरसुत्तपबंधो ___ * एवं संखेजाणि हिदिषधसहस्साणि कादण तदो एक्कसराहेण मोहणीयस्स हिदिबंधो थोवो, णामागोदाणं ठिदिबंधो असंखेजगुणो, णाणावरणीय-दंसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं ठिदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ। १८६. कुदो १ एवमेत्थ वेदणीयट्ठिदिबंधस्स णाणावरणादिद्विदिबंधादो विसेसाहियभावेण पुन्वं पयट्टमाणस्स एककसराहेणेव तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंघेण सरिस स्थितिबन्धसे तीन घातिकोका स्थितिबन्ध एक बारमें असंख्यात गुणहानिरूपसे नीचे (कम होकर) प्राप्त होता है उस स्थानको प्राप्त होनेके पूर्व ही उतरनेवाले जीवके इस प्रकारसे स्थितिबन्धका परिवर्तन हो जाता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। शंका-यदि ऐसा है तो विशेष अधिकरूपसे वृद्धिको छोड़कर असंख्यात गुणवृद्धिरूपसे यह परिवर्तन क्यों नहीं हो जाता ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उतरनेवाले जीवके सम्पूर्ण स्थितिबन्धका परिवर्तन विशेष अधिक वृद्धिरूपसे ही प्रवृत्त होता है यह नियमसे देखा जाता है। और यह नियम कारणरहित है नहीं, क्योंकि यही सूत्र कारण करके प्रवृत्त होता है। इस प्रकार इस क्रमसे फिर भी संख्यात हजार स्थितिबन्धोंका उत्सर्पण करके नीचे उतरनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त कालके जानेपर अन्य प्रकारका स्थितिबन्धके अल्पबहुत्वका क्रम प्राप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके फलस्वरूप आगेके प्रबन्धको कहते हैं * इस प्रकार संख्यात हजार स्थितिबन्धोंको करके पश्चात् एक बार में मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प होता है, उससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है और उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय और अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्ध एक समान होकर विशेष अधिक होता है । $ १८६. शंका-पहले वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादि कर्मोकी अपेक्षा विशेष अधिकरूपसे प्रवृत्त था वह यहाँपर इस प्रकार एक बारमें ही तीन घातिकर्मोंके स्थितिबन्धके समान परिणामवाला कैसे हो गया?
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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