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________________ उवसामणाक्खएण पडिवदमाणपरूवणा परिणामो जादो त्ति णासंकणिज्जं, अंतरंगपरिणामविसेसमस्सियण तर सतहाभावसिद्धीए विप्पडिसेहाभावादो। एत्थ वि जम्हि उद्देसे चडमाणस्स णाणावरणादीणं द्विदिबंधादो विप्पडियण वेदणीयस्स हिदिबंधो असंखेज्जगुणमहिओ जादो तमुद्देससपत्तस्सेव एवंविहो परिवत्तो जादो त्ति घेत्तव्वं । एवमेदेणप्पाबहुअविहिणा पुणो वि संखेज्जसहस्समेत्तहिदिबंधभुस्सरणाणि कादृण हेट्ठा णिवदमाणस्स अंतोमुहुत्तकाले समइक्कते तदो अण्णारिसो द्विदिबंधपरिवत्तो जादो ति पदुप्पायणफलो उत्तरसुत्तणिद्देसो___* एवं संखेबाणि हिदिबंधसहस्साणि गवाणि, तवो अण्णो ठिदिबंधों । एक्कसराहेण णासागोदाणं ठिदिषधो थोवो, मोहणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ, णाणावरणीयदसणावरणीयवेदणीयअंतराइयाणं ठिविबंधो तुल्खो विसेसाहिओ।। १८७. कुदो ? एवमेत्थ एक्कसराहेण णामागोदद्विदिबंधस्स मोहणीयट्ठिदिबंधादो असंखेज्जगुणत्तपरिच्चागेण हेट्ठा विसेसहीणभावेण णिवादो त्ति णासंका कायव्वा, परिणामविसेसमासेज्ज बहुसो दत्तुत्तरत्तादो । एवमेदेणप्पाबहुअकमेण पुणो वि संखेज्जसहस्समेत्ताणि द्विदिबंधभुस्सरणाणि कादू हेट्ठा णिवदमाणस्स अंतोमुहुत्त समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अन्तरंग परिणामविशेषका आलम्बन लेकर उसके उस प्रकारकी सिद्धि होने में कोई निषेध नहीं पाया जाता। यहां पर भी जिस स्थानमें चढ़नेवाले जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिबन्धसे पूर्व स्थितिबन्धको अति क्रम करके वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा अधिक हो गया था उस स्थानको नहीं प्राप्त हुए ही इस प्रकार परिवर्तन हो गया है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार इस अल्पबहुत्व विधिसे फिर भी संख्यात हजार स्थितिबन्ध जाकर नीचे गिरनेवाले जीवके अन्तर्मुहूत काल जानेपर तत्पश्चात् अन्य प्रकारके स्थितिबन्धका परिवर्तन हो जाता इस कथनके फलस्वरूप आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं ___ * इस प्रकार संख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जाते हैं। तत्पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। वहाँ एक बारमें नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है, उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है, उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर समान होकर विशेष अधिक होता है । १८७. शंका-यहाँपर मोहनीयके स्थितिबन्धसे, असंख्यातगुणेपनेका परित्याग करके एक बारमें नाम-गोत्रकर्मके स्थितिबन्धका, विशेष हीनरूपसे निपात कैसे हो गया है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि परिणामविशेषका आलम्बन लेकर बहुत बार उत्तर दे आये हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वके क्रमसे फिर भी संख्यात हजार स्थितिबन्ध जाकर नीचे ~
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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