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________________ उवसामणाक्खएण पडिवदमाणपरूवणा कम्माणं ठिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । ६ १६०. चडमाणचरिमसमयकोहवेदयपडिबद्धं विदिबंधं पेक्खियण दुगुणमेत्तद्विदिबंधसिद्धीए णिप्पडिबंधमेत्थ संभवोवलंभादो। संपहि एत्तो ट्ठिदिबंधसहस्सवारेण अंतोमुहुत्तमेत्तं हेट्ठा समोइण्णस्स से काले सत्त गोकसाये ओकड्डिहिदि त्ति एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणस्स तक्काले मोहणीयविवक्खाए चरिमसमयचउव्विहबंधगत्तपदुप्पायणमुहेण तत्थतणहिदिबंधपमाणावहारणमुत्तरसुत्तमोइण्णं * एदेण कमेण संखेज्जेसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स चरिमसमयचउविहबंधगो जादो, ताधे मोहणीयस्स हिदिबंधो चदुसहिवस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि, सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । ६१६१. चडमाणपढमसमयकोहोवसामगस्स अंतीमुहत्तणवत्तीसवस्समेत्तचदुसंजलणढिदिबंधादो एत्थ दुगुणमेत्तट्ठिदिबंधो जादों, सेसकम्माणं पि तप्पडिभागेणेव संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो द्विदिबंधो एदस्स जादो त्ति सुत्तत्थसंगहो । एवं चरिमसमए । एवं चउन्विहबंधगत्ते वट्टमाणस्स द्विदिबंधपमाणविणिच्छयं कादण संपहि तदणंतरसमए पुरिसवेदस्स बंधोदयपारंभेण पढमसमयपंचविहमोहबंधगो जायदि त्ति जाणावण?मुत्तरसुत्तं भणइशेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। $१६०. चढ़नेवाले अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदकसे सम्बन्ध रखनेवाले स्थितिबन्धको देखते हुए दूने स्थितिबन्धकी सिद्धि यहाँपर बिना प्रतिबन्धके उपलब्ध होती है। अब यहाँसे हजारों स्थितिबन्धोंके व्यापार द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल नीचे उतरे हुए जीवके तदनन्तर समयमें सात नोकषायोंका अपकर्षण करेगा कि इस अवस्थाके मध्यमें विद्यमान हुए जीवके उस कालमें मोहनीयकर्मको विवक्षासे अन्तिम समयमें चार प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले जीवके प्रतिपादन द्वारा वहाँ होनेवाले स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है * इस क्रमसे संख्यात हजार स्थितिवन्धोंके गत हो जानेपर अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मका चतुर्विध बन्धक हो जाता है। उस समय मोहनीयका स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त कम चौंसठ वर्षप्रमाण होता है तथा शेष कर्मोका संख्यात हजार वषेप्रमाण होता है। १६१. चढ़नेवाले प्रथम समयवर्ती क्रोध उपशामकके अन्तर्मुहूर्त कम बत्तीस वर्षप्रमाण चार संज्वलनके स्थितिबन्धसे यहाँपर दुगुणा स्थितिबन्ध हो गया है तथा इसके शेष कर्मोंका भी उनके प्रतिभागके अनुसार संख्यात हजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो गया है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। इस प्रकार पुरुषवेदका बन्ध प्रारम्भ होनेके पूर्व अन्तिम समयमें जानना चाहिये । इस प्रकार चार प्रकारका बन्ध करनेकी अवस्थामें विद्यमान जीवके स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करके अब तदनन्तर समयमें पुरुषवेदका बन्ध और उदय प्रारम्भ होनेके प्रथम
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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