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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे $ १५८. तदो एत्थ अंतरावरणविहाणं किंचि वत्तहस्सामा । तं जहा - बारस - विहं कसायमोकड्डियूण तक्काले गुणसेढिणिक्खेवं करेमाणो कोहसंजलणस्स ताव उदए थोवं पदेसग्गं देदि । तत्तो असंखेज्जगुणं जाव णाणावरणादिकम्माणं पुव्वणिक्खित्तगुणसे दिसीयं पत्तो त्ति । पुणो तदणंतरोवरिमअंतरसमयम्मि एक्कवारमसंखेज्जगुणहीणं णिक्खिवदि । तदो विसेसहीणं काढूण संछुहदि जाव अंतरचरिमट्ठिदिति । दो विदिदिआदिसमयम्मि असंखेज्जगुणहीणं णिक्खिवदि । तत्तो परं सव्वत्थ विसेसहीणं चेव संछुहृदि जाव अप्पप्पणी ओकड्डिदपदेसमइच्छावणावलियाए अपत्तो त्ति । एवं सेसकसायाणं पि अंतरावरणविहाणमेत्थ दट्ठव्वं, विसेसाभावादो । णवरि ते समुदयावलियबाहिरे चैव गुणसेढिणिक्खेवो त्ति वत्तव्वं । सत्तणोकसायइत्थिणवु सयवेदाणं पि अप्पप्पणो अंतरे जहावसरं पूरिज्जमाणे णिसेगपरूवणा एवं चैव कायव्वा । * पढमसमयकोहवेदगस्स बारसविहस्स वि कसायस्स संकमो ६८ होदि । $ १५९. कुदो ! अणाणुपुव्विसंकमवसेण बारसहं पि कसायाणं संकमे विप्पडिसेहाभावादो | * ताधे द्विदिबंधो चउन्हं संजलणाणमट्ठ मासा पडिवण्णा, सेसाणं उसी कषायका अपकर्षण होनेपर इस प्रकारका गुणश्र णिनिक्षेप और अन्तरका भरना होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये । - $ १५८. इसलिये यहाँ पर किश्चित् अन्तरके भरनेकी विधिको बतलावेंगे । वह जैसेबारह प्रकारके कषायोंका अपकर्षण करके उसी समय गुणश्रेणिनिक्षेप करता हुआ उस समय क्रोधसंज्वलन के थोड़े प्रदेशपुंजको उदयमें देता है । उसके बाद ज्ञानावरणादि कर्मोंके पहले निक्षिप्त शीर्ष प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । पुनः तदनन्तर उपरिम अन्तर समयमें एक बार असंख्यातगुणे होन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । उसके बाद अन्तर सम्बन्धी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर विशेष हीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । तदनन्तर द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकमें असंख्यात गुणहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । उससे आगे अपने-अपने अपकर्षित प्रदेशको अतिस्थापनावलि नहीं प्राप्त होती वहाँतक सर्वत्र विशेष हीन प्रदेशपुंजको ही निक्षिप्त करता है । इसी प्रकार यहाँपर शेष कषायोंके अन्तरपूरणको विधि जाननी चाहिये, क्योंकि उनके कथनमें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि उनके प्रदेशपुंजका उदयावलिके बाहर ही गुणश्रेणिनिक्षेप होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिये । सात नोकषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदमें से भी यथावसर अपने-अपने अन्तरको पूरते समय इसी प्रकार निषेकप्ररूपणा करनी चाहिये । * प्रथम समयवर्ती क्रोघवेदकके बारह प्रकारकी कषायका संक्रम होता है । $ १५९. क्योंकि अनानुपूर्वी संक्रमके कारण बारहों कषायोंका संक्रम होनेमें निषेध नहीं है । * उस समय चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूरा आठ मास होता है तथा
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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