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________________ जयधवलासहिदे कसा पाहुडे * पुण्णे पुण्णे द्विदिबंधे मोहणीयवज्जाणं कम्माणं संखेजगुणो हिदिबंधो, मोहणीयस्स द्विदिबंधो बिसेसाहिओ । ६४ $ १४७. जहा चडमाणस्स संखेज्जगुणहाणीए एदम्मि विसए णाणावरणादिकम्माणं द्विदिबंधपती तहा ओदरमाणस्स संखेज्जगुणवड्ढीए ट्ठिदिबंधपवृत्ती । जहा च मोहणीयस्स विसेसहाणीए द्विदिबंधो चडमाणस्स एवं विसेसाहियवड्ढीए ओदरमाणस्स विदिबंधपवृत्ती होदि, चडमाणविवज्जासेण ओदरमाणपरूवणाए पवृत्तिदंसणादो ति । एसो एत्थ सुत्तत्थसन्भावो । एवमेदेण विहाणेण द्विदिबंध सहस्साणि कुणमाणस्स जहाकमं मायावेदगद्धा समप्पइति पदुप्पायणद्वमुत्तरसुतणिद्द सो *. एदेण कमेण संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयमायावेदगों जादों । $ १४८. सुगममेदं मुत्तं । संपहि एदम्मि संधिविसेसे वट्टमाणस्स ट्ठिदिबंध - पमाणावहारण ट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * ताधे दोण्हं संजलणाणं ठिदिबंधों चत्तारि मासा अंतीमुत्तूणा, साणं कम्माणं द्विदिबंधों संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । * उत्तरोत्तर एक-एक स्थितिबन्ध के पूर्ण होनेपर मोहनीय कर्म के अतिरिक्त शेष कर्मोंका संख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । तथा मोहनीयकर्मका विशेष अधिक स्थितिबन्ध होता है | $ १४७. जिसप्रकार चढ़नेवाले जीवके इस स्थान पर ज्ञानावरणादि कर्मोंके संख्यातगुणी हानिरूपसे स्थितिबन्धकी प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार उतरनेवाले जीवके संख्यातगुणी वृद्धिरूप से स्थितिबन्धकी प्रवृत्ति होती है। तथा जिस प्रकार चढ़नेवाले जीवके मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष हानिरूपसे होता है उसी प्रकार उतरनेवाले जीवके विशेष अधिक वृद्धिरूपसे स्थितिबन्धकी प्रवृत्ति होती है, क्योंकि चढ़नेवाले जीवकी अपेक्षा विपरीतरूपसे उतरनेवालेकी प्ररूपणाकी प्रवृत्ति देखी जाती है यह इस सूत्र का तात्पर्यार्थ है । इस प्रकार इस विधिसे हजारों स्थितिबन्ध करनेवालेके क्रमसे मायावेदक काल समाप्त होता है इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं * इस क्रममें संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके गत होनेपर अन्तिम समयवर्ती मायावेदक हो जाता है । $ १४८. यह सूत्र सुगम है। अब इस सन्धिविशेषमें विद्यमान जीवके स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * तब दोनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम चार मास होता है तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्णप्रमाण होता है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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