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________________ उवसामणाक्खएण पडिवदमाणपरूवणा * मायावेदगस्स लोहो तिविहो माया दुविहा मायासंजलणे संकमदि माया तिविहा लोभो च दुविहो लोभसंजलणे संकमदि । १४५. कुदो एवं चे ? मायालोभसंजलणाणं एत्थ बंधसंभवे अणाणुपुव्वीसंकमे च जादे जहावुत्तेण सरूवेण संकमपवुत्तीए णिब्बाहमुवलंभादो। संपहि एत्थेव द्विदिबंधपमाणावहारणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो___* पढमसमयमायावेदगस्स दोण्हं संजलणाणं दुमासहिदिगो बंधो, सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेनवस्ससहस्साणि । १४६. चडमाणचरिमसमयमायावेदगस्स चरिमो द्विदिबंधो मायालोभसंजलणाणं मासहिदिओ जादो।। एत्थ पुण पडिवादपरिणामपाहम्मेण तमुद्देसमपत्तस्सेव तत्तो दुगुणमेत्तो संजादो। एवं सेसकम्माणं पि एदेणेव पडिभागेण संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो द्विदिबंधो जादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। एवं पढमसमयमायावेदगस्स हिदिबंधपमाणावहारणं कादूण संपहि विदियादिडिदिबंधाणमेत्थ पवुत्ती कधं होदि ति आसंकाए उवरिमसुत्तारंभोक्रमका निश्चय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं ____ * मायावेदकके तीन प्रकारके लोभ और दो प्रकारकी मायाका मायासंज्वलनमें संक्रम करता है तथा तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारके लोभकी लोमसंज्वलनमें संक्रम करता है। 5 १४५. शंका-ऐसा किस कारणसे होता है ? समाधान-एक तो माया और लोभ संज्वलनका यहाँपर बन्ध सम्भव है। दूसरे यहाँपर अनानुपूर्वी संक्रम होने लगता है, इसलिए चूर्णिसूत्रमें कहे अनुसार संक्रमकी प्रवृत्ति निर्बाधरूपसे पाई जाती है। अब यहींपर स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं * प्रथम समयवर्ती मायावेदकके दो संज्वलनोंका दो मासप्रमाण स्थितिबन्ध होता है, शेष कर्मोंका संख्यात हजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । $ १४६. चढ़नेवाले चरम समयवर्ती माया वेदकके माया और लोभसंज्वलनका अन्तिम स्थितिबन्ध एक मास स्थिति वाला हो गया था। परन्तु यहाँपर गिरे हुए परिणामोंके माहात्म्यवश उस स्थानको प्राप्त न होनेके पहले ही उसके दना हो गया है। इसी प्रकार शेष कर्मोंका भी इसी प्रतिभागके अनुसार संख्यात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है यह इस सूत्रका अर्थ है। इसप्रकार प्रथम समयवर्ती मायावेदकके स्थितिबन्धके प्रमाणका निश्चय करके अब द्वितीयादि स्थितिबन्धोंकी यहाँपर किस प्रकारकी प्रवृत्ति होती है ऐसी आशंकाके होनेपर आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं १, ता प्रतौ चम्विहो इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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