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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [दसणमोहक्खवणा संतकम्मगयविसेसपरूवणट्ठमिदमाह
* चरिमसमयअपुवकरणे हिदिसंतकम्म थोवं । ६५४. कुदो ? संखेज्जसहस्सेहिं द्विदिखंडएहिं धादिदावसेसपमाणत्तादो । * पढमसमय अपुवकरणे टिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।
६५५. कुदो ? अपुव्वकरणपरिणामेहिं अपत्तघादत्तादो । णवरि णाणावरणादीणमपुवकरणचरिमसमए डिदिसंतकम्ममंतोकोडाकोडिमेतं चेव होइ, दंसणमोहणीयस्स पुण विसेसघादवसेण सागरोवमलक्ख'धत्तमेत्तमंतोकोडाकोडीए . होइ त्ति घेत्तव्वं । द्विदिबंधो वि णाणावरणादिकम्मविसयो एदेणेवप्पाबहुअविहिणा अपुव्वकरणपढमसमयभाविओ होदि त्ति पदुप्पायणफलमुत्तरसुत्तं
* हिदिबंधो वि पढमसमयअपुव्वकरणे बहुगो चरिमसमयअपुव्वकरणे संखेजगुणहीणो।
५६. डिदिबंधोसरणवसेण तेसिं तहाभावसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। एवमपुव्वकरणपरूवणा समत्ता ।
* पढससमयअणियट्टिकरणपविट्ठस्स अपुव्वं द्विदिखंडयमपुव्वमणभागखंडयमपुब्यो द्विदिबंधो, तहा चेव गुणसेढी । वहींपर स्थितिसत्कर्मगत विशेषताका कथन करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्कर्म थोड़ा है।
५४. क्योंकि संख्यात हजारों स्थितिकाण्डकोंका घात होकर उक्तप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रहा है।
* उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
५५. क्योंकि अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा अभी उसका घात नहीं हुआ है । इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण ही है, परन्तु विशेष घातके कारण दर्शनमोहनीय कर्मका अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें ज्ञानावरणादि कर्मविषयक स्थितिबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व विधिके अनुसार होता है इस विषयका कथन करना उत्तर सूत्रका प्रयोजन है
* अपूर्वकरण के प्रथम समयमें स्थितिबन्ध भी बहुत होता है तथा अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें संख्यातगुणा हीन होता है।
५६. क्योंकि स्थितिबन्धापसरण होनेके कारण स्थितिबन्धके उक्त प्रकारसे सिद्ध होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती। इस प्रकार अपूर्वकरण-प्ररूपणा समाप्त हुई।
* अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके अपूर्व स्थितिकाण्डक होता