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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे दिसणमोहक्खवणा कसायेसु उवसंतेसु तुल्लकाले समधिच्छिदे तुल्लं ठिदिसंतकम्म ।
६ ३७. एदेसि दोण्हमणंतरणिरुद्धजीवाणं कसाएसु उवसंतेसु तुल्ले च विस्समणकाले अधद्विदिगालणवावारेण समइकंते संते सरिसं चेव द्विदिसंतकम्मं होइ, ण विसरिसमिदि वुत्तं होइ । किं कारणं ? जो पुव्वं दंसणमोहणीयं खवेमाणो जीवो सो जइ वि अप्पणो ठिदिसंतकम्मस्स संखेज्जे भागे हणइ तो वि सो तेण घादिजमाणो ठिदिविसेसो चरित्तमोहोवसामगेण घादिज्जमाणद्विदिविसेसस्स अंतो चेव णिवददि तत्तो बहिन्भूदस्स तस्साणुवलंभादो। खविददंसणमोहणीओ कसाये उवसामेमाणो सेसोवसामगेण घादिदावसेसहिदिसंतकम्मादो हेट्टदो पेल्लियूण किण्ण घादेदि त्ति चे? ण, तत्तो हेट्ठा तस्स घादणसत्तीए असंभवादो। कुदो एवं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। तदो दोण्हं पि अयप्पणो विधाणेणागंतूण कसायोवसामणाए अब्भुट्ठिदाणमणियट्टिपढमट्ठिदिखंडये णिवदिदे तदो पहुडि सव्वत्थेव द्विदिसंतकम्मं सरिसं चेव होइ त्ति सिद्धं ।
दोनों ही जीवोंके कषायोंके उपशान्त होकर समान काल व्यतीत होनेपर समान स्थितिसत्कर्म होता है।
$ ३७. अनन्तर विवक्षित हुए इन दोनों जीवोंके कषायोंके उपशान्त होनेपर और अधःस्थितिगालनरूप व्यापारके द्वारा समान विश्रामकालके व्यतीत होनेपर स्थितिसत्कर्म समान ही होता है, विसदृश नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि जो पहले दर्शनमोहनीयका क्षय करनेत्राला जीव है वह यद्यपि अपने स्थितिसत्कर्मके संख्यातबहुभागका घात करता है तो भी उसके द्वारा घाता जानेवाला वह स्थितिविशेष चारित्रमोहनीयके उपशामक द्वारा घाते जाननेवाले स्थितिविशेषके भीतर ही पतित होता है, उससे अधिक वह नहीं पाया जाता।
शंका-जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय किया है ऐसा जीव कपायोंका उपशम करता हुआ दूसरे उपशामकके द्वारा धात करनेसे शेष रहे स्थितिसत्कर्मसे नीचे अपकर्षणकर क्यों नहीं घातता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उससे नीचे उसके घात करनेकी शक्तिका पाया जाना असम्भव है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
इसलिये अपनी-अपनी विधिसे आकर कषायोंकी उपशमना करनेके लिये उद्यत हुए दोनों ही जीवोंके अनिवृत्तिकरणके प्रथम स्थितिकाण्डकके पतित होनेपर वहाँसे लेकर सर्वत्र हो स्थितिसत्कर्म सदृश ही होता है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ— यहाँ यह बतलाया है कि चाहे दर्शनमोहनीयका क्षयकर कषायोंका उप