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गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिहसो
२९७ दव्वपमाण मेगसमयपबद्धासंखेज्जभागमेत्तं चेव होइ, तक्कोलोकड्डिददव्वस्स असंखेज्जाणं भागाणं दिवड्डगुणहाणिपडिभागेण लद्धगभागपमाणत्तादो। तम्हा सिद्धमेदस्सासंखेज्जगुणहीणत्तं । एत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं चेव णिक्खिवदि जाव चरिमट्ठिदिमइच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो ति, तत्थ पयारंतरासंभवादो। एवं चेव माणवेदगस्स विदियादिसमएसु वि पढम-विदियहिदीसु पदेसविण्णासकमो दट्ठव्यो। णवरि समयं पडि असंखेजगुणाए सेढीए पदेसग्गमोकड्डियूण गलिदसेसायामेण उदयादिगुणसेढिणिक्खेवं करेदि त्ति वत्तव्वं ।
* जाधे कोधस्स बंधोदया वोच्छिण्णा ताधे पाये माणस्स तिविहस्स उवसामगो।
२३० कोहसंजलणोवसामणाणंतरं जहावसरपत्तस्स तिविहस्स माणस्स आयुत्तकिरियाए उवसामगो होदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एत्थेवुद्देसे द्विदिबंधपमाणावहारणमुवरिमसुत्तावयारो--
* ताधे संजलणाणं हिदिवंधो चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तेण ऊणया । सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि ।
२३१. अणंतराइक्कतहेट्ठिमढिदिबंधो संजलणाणं चत्तारि मासा पडिवुण्णा त्ति आदिकी स्थितिमें निक्षिप्त किये जानेवाले द्रव्यका प्रमाण एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, क्योंकि वह उस समय जितने द्रव्यका अपकर्षण होता है उसे डेढ़ गुणहाणिसे भाजित करने पर असंख्यात बहुभागोंके अतिरिक्त जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण होता है । इसलिये यह असंख्यातगुणा हीन होता है यह सिद्ध हुआ। इससे ऊपर सर्वत्र अतिस्थापनावलिप्रमाण स्थितिको छोड़कर अन्तिम स्थिति तक विशेष हीन द्रव्यको ही निक्षिप्त करता है, क्योंकि वहाँ अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। इसी प्रकार मानवेदकके द्वितीयादि समयों में भी प्रथम और द्वितीय स्थितियों में प्रदेशोंके विन्यासका क्रम जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेशपुञ्जका अपकर्षण कर उदयादि गुणश्रेणिका जितना आयाम गलित होता जाय उससे शेष रहनेवाले उसके आयाममें निक्षेप करता है ऐसा कहना चाहिए ।
__* जिस समय क्रोधसंज्वलनके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न होते हैं उसी समय तीन प्रकारके मानका उपशामक होता है।
६२३०. क्रोधसंज्वलनके उपशमाये जानेके अनन्तर यथावसर प्राप्त तीन प्रकारके मानका आयुक्त क्रिया द्वारा उपशामक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी स्थलपर स्थितिबन्ध के प्रमाणका निश्चय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* उस समय तीन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम चार मास होता है और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष होता है।
$२३१. अनन्तर पूर्व संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूरा चार माह कह आये हैं । परन्तु